कॉरिडोर में कबूतर का धरने पर बैठना। जाने पहचाने स्वर में गुटर-गूँ गुटर-गूँ करते हुए कहना ।
"हाँ, वही हूँ मैं।"
राधिका जैसे कह रही हो।
” हाँ,गमले के पीछे की एक गज़ ज़मीन तुम्हारे ही नाम तो लिख रखी है। "
हिलकोरे मारती स्मृतियाँ; राधिका समय से साथ बहती ही चली गई।
"हाँ, वही तो है यह कबूतर…नहीं! नहीं!वह नहीं है, वह तो कुछ मोटा था।” अब कबूतर की पहचान करने को आकुल हो गया मन ?
कबूतर अपने साथ ले आया यादों की पोटली। राधिका उस गठरी में ढूँढ़ने लगी थी कोकिला को, उसकी माँ उसे कोकि कह पुकारती।
राधिका जैसे ही कॉरिडोर में रखी कुर्सी खिसकाती उसके एक-दो मिनट बाद ही कोकि छत के कॉर्नर पर आकर खड़ी हो जाती । कोकि वहाँ रहने नहीं आई थी तब उस दीवार पर यही कबूतर बैठा करता था।
भावों ने उठ कर समर्थन किया।
" हाँ, शायद यही था।"
फ़ुरसत के लम्हों में अक्सर राधिका उसे निहारती रहती । अब वह स्थान कोकि का हुआ। उसकी माँ उसे आवाज़ लगाती-
"अरे! कोकि इधर आ, बाहर बहुत धूप है।"
तब वह हाथ हिलते हुए कहती- " मैं अभी नहीं आऊँगी।” उसके हिलते हाथ राधिका को यों ही कुछ कहते से नज़र आते।
दिन-रात अपनी गति से डग भरते गए। राधिका और कोकि एक दूसरे को देखकर समय व्यतीत करने लगे। एक बंधन जो उन्होंने नहीं बाँधा स्वतः ही जुड़ता चला गया, जो भी पाँच-सात मिनट पहले आता वह दूसरे का इंतज़ार करता। आँखें मिलती एक मिठी मुस्कान के साथ,कोकि मुट्ठी भर स्नेह भेजती और राधिका ममता के फूल।
कबूतर पता नहीं कब राधिका के कॉरिडोर में आकर रहने लगा और इस कहनी का निमित्त बन गया। वह अकेला नहीं आया, पहले अपने दो अंडे छोड़कर गया फिर वहीं अपना घर बना लिया। राधिका उसे दाना-पानी देने लगी, जल्द ही उससे भी दोस्ती हो गई । अब देखकर उड़ता नहीं, वहीं पंख फैलाए बैठा रहता।
"हाँ,यह वही कबूतर है शायद दोबारा आया है।" अवचेतन से चेतन में लौटी राधिका उसे देखकर फिर यह शब्द दोहराती है।
समय अपनी चाल चलता गया। कोकि कभी उदास तो कभी हँसती जैसे भी रहती पाँच बजे उसी कॉर्नर पर खड़ी मिलती। उसका मौन शब्द बिखेरता, राधिका पलकों पर सहेज लेती। कोकि की घनी काली पलकें बहुत कुछ कह जातीं। मम्मी से कितना लाड- प्यार,कितनी डाँट मिली।इन सब का हिसाब देने लगी थी,उसकी मुस्कान हृदय में बदरी-सी बरसती। निगाह भर देखना दोनों के लिए तृप्ति का एहसास था।
उन दिनों अचानक राधिका की बेटी बीमार पड़ गई। कोरिडोर में बैठने का सिलसिला टूट गया। बेटी की तपती काया देख राधिका बिखर-सी गई। झुँझलाहट कंधों पर टंगी रहती और दुपट्टा खूँटी पर। या तो कुछ बोलती नहीं, बोलती तो काटने को दौड़ती। एक दिन दो दिन न जाने उस समय बेटी को क्या हुआ था? तब उसे एहसास हुआ जिस मोह मुक्ति की वह दुहाई देती फिरती है वह तो अभी भी उसके पल्लू से बँधा पड़ा है ।फिर वह मुक्त किससे हुई? क्या था जिससे वह स्वयं को मुक्त-सी पाती। एक हल्कापन जो उसे अंबर में उड़ा ले जाता। बादलों के उस पार धरती की सुंदरता निहारने।
किरायदार शब्द कितना पीड़ादायी होता है, यह एहसास भी उसे उन्हीं दिनों हुआ जब सांसें देह का साथ छोड़ती-सी लगी।
तभी उस दिन अचानक डोरबेल बजती है।
”आंटी आजकल आप कोरिडोर में क्यों नहीं बैठतीं ? "
छोटा-सा बच्चा बार-बार उचक-उचककर डोरबेल बजाता जाता और कहता जाता, बंदर की भांति एक जगह ठहरने का नाम ही नहीं ले रहा था।
"शरारत नहीं करते, दीदी आराम कर रही है ना। "
राधिका ने बड़े ग़ुस्से से कहा । अब भला बच्चे को क्या पता, कौन आराम कर रहा है?और कौन जाग रहा है? राधिका के शब्दों की गर्माहट से बच्चा चुपचाप वहीं खड़ा हो गया और पैर के पंजे से चप्पलें हिलाने लगा।
"ये क्या प्रश्न है और कौन हो तुम?”
राधिका ने शब्दों पर पड़ने वाले सभी स्वराघात, बलाघात ताक़ पर रखते हुए,भरे बादलों से निकली बिजली-सी मासूम बच्चे पर टूट पड़ी।
” कोकि ने भेजा है।”
बच्चा अपमान की लहरों पर सवार हो नथुने फूलाने लगा कि मुझ पर किस बात का इतना ग़ुस्सा! चॉकलेट की जगह शब्दों का चाबुक जड़ दिया!
"क्यों कोकि स्वयं नहीं आ सकती थी?"
राधिका ने स्वर को सँभालते हुए कोकि पर अपना हक जताते हुए कहा।
”बोलती नहीं है वह, बाहर जाने पर मम्मी फटकारती है उसे। "
हाथ में पकड़ी छोटी-सी छड़ी वहीं छोड़ बच्चा दौड़ता हुआ सीढ़ियाँ जल्दी-जल्दी पार कर गया, पीछे मुड़कर भी नहीं देखा कि उसके एक शब्द से हृदय टूटकर बिखर गया है।जैसे ही राधिका ने कोरिडोर का दरवाज़ा खोला। साँझ की बरसती धूप में कोकि राधिका का इंतज़ार करती मिली। एक हाथ में गेंद, दूसरे हाथ से गर्दन का पसीना पोंछती। उसकी आँखें शिकायतों के पर्वत गढ़ रही थीं और पलकें नाराज़गी से भीगी हुई थीं।
उस वक़्त राधिका पाषाण से कम न थी। न भावों ने शब्द गढ़े न हाथों ने हिलकर हाय कहा। हृदय ने जिस तूफ़ान को जकड रखा था, कोकि को देख झरने-सा बह निकला।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'