भूकंप झटकों के साथ, बर्तनों की आवाज़ और एक स्वर कौंधता है।
” निर्भाग है तू ! यह देख, तेरा श्राद्ध निकाल दिया आज।”
आक्रोशित स्वर में क्रोध थाली से एक निवाला निकालता है और ग़ुस्साए तेवर लिए थाली से उठ जाता है।
”मर गई तू हमारे लिए आज से …ये ले…। "
और मुँह पर कफ़न दे मारा ईर्ष्या ने।
स्त्री समझ न पाई मनोभावों को, वह सकपका जाती है। "हुआ क्या ? "
समाज की पीड़ित हवा के साथ, पीड़ा से लहूँ लहूलुहान कफ़न में लिपटी स्त्री जब दहलीज़ के बाहर पैर रखती है तभी उलाहना से सामना होता है।
” पुरुषों के समाज में नारी हो, तूने नारीत्व छोड़ पुरुषत्व धारण किया ? उसी का दंड है यह ! "
उल्लाहना खिलखिलाते हुए सामने से गुज़र जाता है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'