Thursday 30 April 2020
बेटी की माँ
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बेटी की माँ,
लघुकथा
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
Wednesday 22 April 2020
वह लड़का
रितेश लॉन में आराम-कुर्सी पर बैठे अख़बार के मुखपृष्ठ की सुर्ख़ियों पर नज़र गड़ाए थे।जैकी हरी मुलायम घास पर कुलाँचें भरता हुआ कभी रितेश का ध्यान बँटाने की कोशिश में पाँवों के पास आकर
कूँ-कूँ करने लगता। गुलमोहर की डालियों पर गौरैया-वृन्द का सामूहिक गान, मुंडेर पर कौए की कांव-कांव, घास पर पड़तीं उदय हो चुके भानु की रश्मियाँ, सुदूर अमराइयों से आती मोर, टिटहरी, कोयल की मधुर कर्णप्रिय ध्वनियाँ आदि-आदि मिलकर मनोहारी दृश्य उपस्थित कर रहे थे तभी सर पर पोटली रखे, एक हाथ में गन्ने का गट्ठर व दूसरे हाथ में स्टील की बर्नी लिए गोपाल मुख्य द्वार से ही आवाज़ लगाता हुआ रितेश को प्रणाम करता है।
"मैम साहब कुछ हरी सब्ज़ियाँ भी लाया हूँ। "
गोपाल एक छोटा थैला और अन्य सामान राधिका के हाथ में थमाकर लॉन की सफ़ाई में जुट गया।
"गोपाल भाई बाल-बच्चे सब ठीक हैं?
भाभी जी को मेरी भेजी साड़ी पसंद तो आयी न!"
राधिका ने उत्सुकता से गोपाल को पुकारते हुए उसकी उदारता को भाँपते हुए अपने उत्तरदायित्व को पूर्ण रुप से निर्वहन करने का प्रयास किया। आयेदिन गोपाल भी कभी हरी सब्ज़ियाँ, दूध, घी, दालें, गुड़ आदि गाँव में उपलब्धता और अपनी क्षमता के मुताबिक़ सभी साहब के घर लाने का प्रयास किया करता था ताकि उनकी कृपा उसे मिलती रहे।
"सब ठीक ही है मैम साहब, हमरा बिटवा भी अब अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका है अगर आप साहब से कहकर साहब जी के दफ़्तर में उसे भी काम पर लगवा दो तो मेहरबानी आपकी। "
गोपाल ने गमछे से अपना मुँह पोंछते हुए उम्मीदभरी निगाहों से राधिका से विनम्र अनुरोध किया और अपने काम में जुट गया। राधिका भी बिन कुछ कहे अंदर चली गयी।
सप्ताहभर बाद सही मौक़ा पाकर राधिका ने गोपाल के बेटे को सरकारी नौकरी में लेने का रितेश से आग्रह किया। कुछ दिनों बाद गोपाल के लड़के को रितेश ने अपने सरकारी कार्यालय में डी-वर्ग में अस्थाई नियुक्ति दे दी।
लड़का ठीक-ठाक पढ़ा लिखा था। हल्की-फुलकी अँग्रेज़ी भी जानता था, गणित में अच्छा था। लेन-देन के मामलों में एक दम हाज़िर-जवाबी।
अब धीरे-धीरे रितेश ऑफ़िस के साथ-साथ सुबह-शाम उस लड़के से अपने घर का काम-काज भी करवाने लगा और गोपाल की छुट्टी कर दी गयी। काफ़ी दिनों तक ऐसे ही चलता रहा।
एक दिन बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। वह लड़का अपनी साइकिल बँगले के बाहर ही खड़ी करके आता है। कपड़े बारिश में भीगे हुए थे। कुछ चिंतित-सा जल्दी में था शायद वह।
"अरे इतनी बारिश में ऑफ़िस से इतनी जल्दी आ गये, कुछ देर वहीं ठहर जाते तब तक बारिश रुक जाती। "
रितेश ने दरवाज़ा खोलते हुए कहा।
"साहब! बाबा की तबीयत ख़राब है,
आज घर जल्दी जाना चाहता हूँ। "
लड़के ने दीनता से दाँत दिखाते हुए विनम्रतापूर्वक कहा।
"ठीक है तो फिर ऑफ़िस में ही बड़े बाबू को बोलकर निकल जाते, यहाँ आने की मशक्कत क्यों की?"
रितेश ने उसे फटकारते हुए कहा।
"साहब अब मेरी नौकरी भी स्थाई कर दो, मेरे बाद आए दो लड़कों को आपने स्थाई कर दिया है।पिछले दो वर्ष से आप और मैम साहब को लगातार बोल रहा हूँ।"
लड़के ने आज बारिश के पानी में अपनी लाचारी धोने का पूरा प्रयास किया। आख़िरकार अपनी नौकरी स्थाई करवाने का पूरा भरकस यत्न किया।
"ठीक है...ठीक है...मैं देखता हूँ, अभी तुम घर जाओ।"
वह लड़का गर्दन झुकाए वहाँ से निकल जाता है परंतु आज उसका दर्द बारिश की बूँदों को भी पी रहा था शायद कोई टीस फूट रही थी हृदय में।
"लड़का बहुत मेहनती है और फिर गोपाल भाई भी हमारे वफ़ादार थे, आप इसे स्थाई क्यों नहीं कर देते?
आपकी समझ मुझे नहीं समझ आती।"
राधिका कॉफ़ी का कप रितेश की ओर बढ़ाते हुए कहती है।
"तुम नहीं जानती इन लोगों को, ज़्यादा सर पर बिठाओ तब नाचने लगते है। मैं यह जो इससे दोनों जगह काम में ले रहा हूँ न...मिनटों में बदल जाएगा यही लड़का। आज गिड़गिड़ाकर गया है, यही आँखें दिखाने लगेगा, आज स्थाई होने की माँग कल प्रमोशन की माँग करने लगेगा। आज सर झुकाकर जा रहा है कल यही सर उठाने लगेगा और तो और हमारे घर की बेगार करना भी झटके में छोड़ देगा।
रितेश ने कॉफ़ी ख़त्म की और मोबइल फोन पर निगाह गड़ाते हुए कहा।
राधिका की पलकें एक पल के लिए ठहर गईं रितेश के भावशून्य चेहरे पर। आज रितेश का एक नया रुप जो देख रही थी काष्ठवत होकर।
©अनीता सैनी
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
Thursday 16 April 2020
मरुस्थल का मौन संवाद
दूर-दूर तक अपना ही विस्तार देख मरु मानव को भेजता है एक संदेश। वह भी चाहता है तपते बदन पर छाँव। निहारना चाहता है जीव-जंतुओं को। सुबह-सुबह उठना चाहता है सुनकर बैलों-ऊँटों की घंटियों की मधुर ध्वनि।थक गया है धूल से उठते बवंडर देख-देखकर। नम आँखों से फिर वह भी हँसने लगता है, देखता है मानव के कृत्य; तभी दूर से आती आँधी को देखता है और कहता है -
"मरुस्थल का विस्तार तीव्र गति से बढ़ रहा। जिस मानव का मन हरियाली में मुग्ध है उस तक ससम्मान मेरा संदेश पहुँचा दो।"
सर्वाधिक गतिशील अर्द्धचंद्राकार बालू के स्तूप बरखान ने अपनी जगह बदलते हुए कहा-
"बढ़ रहे हैं हम, बढ़ावा इंसान दे रहा है। सब सहूलियत से जो मिल रहा है उसे गँवाने को आतुर लग रहा है। एक पल के जीवन की ख़ातिर बच्चों का भविष्य दाँव पर लगा रहा है, ना-समझ हृदय पर भी विस्तार मरुस्थल का कर रहा है।"
बरखान ने हवा को उसी दिशा में धकेला जिधर से वह आयी थी, ग़ुस्से में हवा ने अपना रुख़ बदला। बालू को आग़ोश में लिया, स्वरुप बवंडर का दिया;अब गर्त को अपना स्वरुप प्राप्त हुआ वह भी सभा में सहभागिता जताता है।
"समझ के वारे-न्यारे पट खुले हैं मानव के। क्या दिखता नहीं कैसे हवा हमें खिसकाती है और जगह बनाती है। रण (टाट ) के लिए और खडींन की मटियारी मिट्टी जिजीविषा के साथ पनपती है वहाँ।"
गर्त अपना रुप प्राप्त करता है, बालू उठने से कुछ तपन महसूस करता है। जलते बदन को सहलाता हुआ अपने विचार रख ही देता है।
"परंतु राह में इंदिरा गाँधी नहर रोड़ा बनेगी,कैसे पार करेंगे उसे? सुना है पेड़-पौधे लगाए जा रहे हैं। बाड़ से बाँधा जा रहा है हमें।"
पवन के समानांतर चलते हुए, बनने वाले अनुदैधर्य स्तूप ने हवा के चले जाने पर अपना मंतव्य रखा।
"हम नहीं करेंगे उस ओर से निमंत्रण स्वयं हमारे पास आएगा। वे आतुर हैं स्वयं को मरुस्थल बनाने के लिए। क्या सुना है कभी बाड़ ने बाड़े को निगला, नहीं न... तो अब देखो।"
अनुप्रस्थ ने समकोण में अपनी आकृति बनाई, चारों तरफ़ निग़ाह दौड़ाई और कहा-
"वह देखो, ऊँटों की टोळी कैसे दौड़ रही है? मरीचिका-सी!
कहीं ठाह मिली इन्हें? नहीं न... इसी के जैसे चरवाहे आसान करेंगे थाह हमारी।
तीनों आपस में खिसियाते हैं,तेज़ धूप को पीते हुए। अब वे तीनों हवा के साथ उठे बवंडर के साथ अपना स्थान बदलते हैं। एकरुपता इतनी की मानव को भी मात दे गए हैं। नम आँखों से आभार व्यक्त करते हैं मानव का जिसने उसे के स्वरुप को ओर विस्तार दिया है।
©अनीता सैनी
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मरुस्थल संवाद लघुकथा
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
Saturday 11 April 2020
गश्त पर सैनिक
शाम का सन्नाटा जंगल को और भी डरावना बना देता है।छत्तीसगढ़ के सघन वन पार करना किसी मिशन से कम नहीं था उस पर हल्की बूँदा-बाँदी छिपे जीव-जंतुओं को खुला आमंत्रण थी।पेड़ों से लताएँ गुंथीं हुईं थी, रास्ता बनाना बहुत मुश्किल था।तीनों दोस्त बारी-बारी से लताओं पर चाकू चलाते और रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ रहे थे।मंजीत यही कुछ उन्नीस-बीस वर्ष का प्रकृतिप्रेमी स्मार्ट नौजवान था। हरा-भरा जंगल मोह रहा था उसे, प्रकृति का ख़ूबसूरत नज़ारा आँखों में क़ैद करते हुए आगे बढ़ रहा था।
प्रवीण ने समय की नज़ाकत को समझा और तेज़ी से अपने क़दमों को आगे बढ़ाते हुए समय रहते दूरी तय करने का फ़ैसला करता है।उसे लगा अब आदेश देने का वक़्त निकल चुका है।वह अपने दोनों सहयोगियों को अपने पीछे चलने का आदेश देता है। गुमसुम ख्यालों लीन दोनों दोस्तों की चुप्पी पर वार करता हुआ कहता।
"अपनों की याद मन की चारदीवारी में क़ैद हो उनकी रक्षा का दायित्त्व और सुरक्षा का ख़याल धर्म है हमारा।"
प्रवीण ने दोनों कमांडो के विचलित मन में उत्साह का संचार करते हुए कहा।
"कमांडो प्रकाश! तुम्हारे चेहरे पर कुछ बेरुख़ी झलक रही है,घर पर सब कुशल मंगल?"
"जी कमांडो!"
प्रकाश अपने सीनियर का मान रखते हुए चाकू ज़ोर से लताओं-बल्लरियों पर चलाता है और एक लंबी साँस लेता है।
"एक सीनियर नहीं दोस्त पूछ रहा है, सब ठीक है परिवार में? "
प्रवीण की सद्भावना में भी रोष झलक ही जाता है। क़दमों की आहट और तेज़ हो जाती है। शाम के सन्नाटे के साथ पैरों से कुचलतीं सूखी पत्तियों की आवाज़ साफ़ सुनी जा सकती थी।
"पत्नी, बच्चे, परिवार और समाज के क़िस्से बेचैनी बढ़ाते हैं सर! "
प्रकाश ने अपना पक्ष रखा। दर्द भी रुतबे से बाँटना चाहा। नम आँखों का पानी आँखों को ही पिला दिया।
"पत्नी,बच्चे, परिवार और समाज हमारी ज़िंदगी नहीं, हम देश के सिपाही हैं; वो आप से जुड़े हैं और आप देश से। समझना-समझाना कुछ नहीं, विचार यही रखो कि हम चौबीस घंटे के सिपाही हैं और परिवार हमारा एक मिनट!"
प्रवीण ने सीना चौड़ा करते हुए आँखों में आत्मविश्वास को पनाह देते हुए कहा।
एक निगाह जंगल में दौड़ाई और ठंडी साँस खींचते हुए कहा-
"जवानों के प्रेम के क़िस्से नहीं बनते, वे शहादत पाषाण पर लिखवाते हैं; हमें सैनिक होने पर फ़ख़्र है। इसी एहसास को सीने में पाले रखो कमांडो!"
बादलों की गड़गड़ाहट के साथ बूँदा-बाँदी और बढ़ जाती है। तीनों दोस्तों ने एक पेड़ के नीचे ठहरने का निश्चय किया और पैरों पर बँधे ऐंक्लिट में अपने-अपने चाकू रखे। प्रवीण सबसे सीनियर है, उसी को कमांड संभालनी है सो उसे हक नहीं था कुछ कहने का या अपने मन के द्वंद्व को शब्द देने का। वह उस वक़्त संरक्षक की भूमिका में था। वे पीठ पर लदे सामान से कुछ खाने-पीने का सामान निकलते हैं।
प्रकाश एक टहनी से बैठने की जगह साफ़ करता है। सीनियर को सम्मान, जूनियर को स्नेह बस। बैठने का हाथ से इशारा करता है।
"सर मेरे माँ-बाबा मुझपर बहुत गर्व करते हैं। मेरी प्रेमिका जान निसार करती है मुझपर!"
मंजीत प्रकृति के सौंदर्य में डूबा ख़ुशी-ख़ुशी अपना मंतव्य व्यक्त रखता है।
"अभी प्रेमिका है, पत्नी बनने पर देखना कमियों का ख़ज़ाना ढूँढ़ लेगी मोहतरमा!"
प्रकाश मंजीत को छेड़ता हुआ कहता हैं।
"हम दूध का क़र्ज़ चुकाने निकले है। पत्नी और बच्चों के गुनाहगार तो रहते ही हैं उनके सितम को भी सीने से लगाया करो यारो!"
प्रवीण वहीं पेड़ के नीचे लेट जाता है। एक हाथ सर के नीचे और एक हाथ अपने सीने पर रखता है। कहीं अपनी ही दुनिया में गुम हो जाता है। आँखें एकटक पानी की गिरती बूँदों को अपनों के एहसास से जोड़तीं है। यादों के गहरे समंदर में डूब रहा था प्रवीण।
"सर कभी आपको नहीं लगता अगर आप सेना में सम्मिलित नहीं होते तो ज़रुर किसी ऐसी संस्था में होते कि सुबह-शाम अपने परिवार के साथ होते। आप भी समाज का हिस्सा होते। आपने महसूस किया है आम इंसान की सोच को? "
आख़िरकार प्रकाश अपनी व्यथा स्पष्ट कर ही देता है और पीछे खिसकते हुए पेड़ का सहारा लेता है।
"नहीं और देखना भी नहीं चाहता क्योंकि मैं देश का सिपाही हूँ और वे मेरे लोग। वे कितना ही ग़ुरूर पालें परंतु तुम्हारे जितने बहादुर नहीं हैं वे, नहीं कर सकते परिवार का त्याग।"
प्रवीण उठकर बैठ जाता है। अब बारिश भी कुछ कम हो गयी थी। तीनों दोस्त अपनी पीठ पर लादते हैं पिट्ठू और निकलते हैं पाने अपनी मंज़िल उन्हीं लताओं को हटाते हुए।
©अनीता सैनी
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गश्त पर सैनिक,
लघुकथा
मैं एक ब्लॉगर हूँ, स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हूँ, प्रकृति के निकट स्वयं को पाकर रचनाएँ लिखती हूँ, कविता भाव जगाएँ तो सार्थक है, अन्यथा कविता अपना मर्म तलाशती है |
Friday 10 April 2020
वरिष्ठ लेखक डॉ. रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' जी द्वारा लिया गया मेरा साक्षात्कार ब्लॉग 'मयंक की डायरी' पर प्रकाशित
वरिष्ठ लेखक आदरणीय रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी जो अनेक पुस्तकों के लेखक हैं, कई ब्लॉग के संचालनकर्ता हैं, साहित्यिक संस्थाओं के संस्थापक हैं, उन्होंने मेरा साक्षात्कार ब्लॉग 'मयंक की डायरी' के लिये लिया है जो आपके समक्ष प्रस्तुत है-
रविवार, मार्च 29, 2020
"जानी-मानी ब्लॉग लेखिका अनीता सैनी का साक्षात्कार"
मित्रों!
झुँझनू राजस्थान में जन्मी, जयपुर (राजस्थान) की निवासी हिन्दी ब्लॉगिंग की सशक्त लेखिका और चर्चा मंच पर ब्लॉगों की चर्चाकार अनीता सैनी का साक्षात्कार पर देखिए -
श्रीमती अनीता सैनी एक अध्यापिका हैं। हिंदी और कम्प्यूटर साइंस पढ़ाती हैं। इनका एक संयुक्त परिवार है जिसमें शासकीय अधिकारी से लेकर खेती-किसानी से जुड़े पारिवारिक सदस्य हैं।
अनीता जी साहित्य में आपका रुझान कैसे हुआ? आपको कब महसूस हुआ कि आपके भीतर कोई रचनाकार है?
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अनीता सैनी: साहित्य के प्रति मेरा रुझान बचपन से ही रहा है। आरंभ डायरी-लेखन से हुआ आगे चलकर छोटी-छोटी देशप्रेम की कविताएँ लिखीं जब वे सराहीं गयीं तब एकांकी / प्रहसन लिखना शुरू किया। जब गुण ग्राहक प्रबुद्ध जनों ने मनोबल बढ़ाया तब एहसास हुआ कि मेरे भीतर भी कोई रचनाकार है।
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अब जरा यह भी बता दीजिए कि आप का आदर्श कौन रहा है? और क्यों रहा है? क्या अब भी आप उसे अपना आदर्श मानते हैं या समय के बहाव के साथ आदर्श प्रतीकों में बदलाव आया है?
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अनीता सैनी: मेरे स्वर्गीय दादा जी श्री गीगराज साँखला ( जो जाने-माने पशु चिकित्सक थे ) वो आज भी मेरे मेरे आदर्श हैं क्योंकि उन्होंने ही मुझे ऐसे संस्कार दिये जो जीवन जीने की कला सिखाते हैं।उनके द्वारा रोपे गये सामाजिक मूल्य मेरे जीवन की धरोहर हैं। प्रकृति और पशु-पक्षियों से उन्हें विशेष लगाव था जिसका प्रभाव मेरे जीवन पर भी है।
इसलिए मेरे दादा जी का कृतित्त्व और व्यक्तित्त्व आज भी मेरे लिये आदर्श बने हुए हैं। वक़्त के साथ मूल्य बदलते रहते हैं जिन्हें नये सिरे से पुनर्स्थापित किया जाना एक सतत प्रक्रिया है। समय के साथ आये बदलावों में भी दादा जी द्वारा रोपे गये संस्कार मुझे आज भी ऊर्जावान बनाये रखते हैं।
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अनीता जी वर्तमान रचनाकारों की पीढ़ी में आप के आदर्श कौन हैं?
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अनीता सैनी: सच कहूँ तो वर्तमान पीढ़ी के रचनाकारों में मेरा कोई आदर्श नहीं है चूँकि मैं अभी साहित्य अध्ययन प्रक्रिया से गुज़र रही हूँ जहाँ कविवर प्रोफ़ेसर अशोक चक्रधर जी एवं कविवर अशोक बाजपेयी जी का सृजन मुझे बहुत प्रभावित करता है।
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आप अपना लेखन स्वांतःसुखाय करती हैं या किसी विशेष प्रयोजन से करती हैं?
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अनीता सैनी: स्वान्तः सुखाय तो हरेक लेखक / रचनाकार के साथ स्वतः अप्रत्यक्ष रूप से चिपक जाता है। हाँ, विशेष प्रयोजन के विषय में कहना चाहूँगी कि सृजन के लिये क़लम यदि थाम ही ली है तो उसे क्यों न वक़्त का सच लिखकर सारगर्भित बनाया जाय। जब कभी आज को भविष्य में आँकने की ज़रूरत हो तो विभिन्न मुद्दों पर मेरा नज़रिया भी शामिल किया जाय, ऐसा मेरा मानना है।
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अनीता जी! आप साहित्य की किस विधा को ज्यादा सशक्त मानती हैं?
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अनीता सैनी: मेरी नज़र में साहित्य की सभी विधाएँ सशक्त हैं लेकिन मुझे कभी-कभी कविता जनमानस पर अपना प्रभाव संप्रेषित करने में असरदार नज़र आती है क्योंकि उसमें भाव, विचार एवं संवेदना का मिश्रण व्यक्ति के अंतरमन को झकझोरते हैं।
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आज एक हिन्दी ब्लॉगर के रूप में आपकी जो पहचान बन रही है उसमें आप किस रचनाकार के रूप में उभर रही हैं। गीत, मुक्तक, ग़ज़ल या छन्दमुक्त लिखने में किस को सहज महसूस मानती हैं?
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अनीता सैनी: दरअसल मेरी पहचान छंदमुक्त लेखन से हुई है क्योंकि इसमें मैं अपने विचार सँजोने में स्वयं को सहज पाती हूँ। हालाँकि मैं छंदबद्ध रचनाओं दोहा एवं नवगीत में भी दख़ल रखती हूँ।
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क्या आप भी यह मानती हैं कि गीत विदा हो रहा है और छन्दमुक्त या ग़ज़ल तेज़ी से आगे आ रही है? कारण बताइए।
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अनीता सैनी: हाँ, ऐसा मैंने भी आजकल का लेखन पढ़कर महसूस किया है। छंदमुक्त लेखन का रुझान बढ़ने की वजह है कि आजकल रचनाकार अपना समय और मेहनत दोनों बचाना चाहते हैं अतः ऐसे लेखन में अपनी समस्त ऊर्जा लगा देते हैं। छंदमुक्त लेखन अँग्रेज़ी कविता लेखन से प्रभावित है।
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अनीता जी! क्या आप हिंदी और उर्दू को अलग-अलग देखने में सहमत हैं? अगर हाँ तो क्यों?
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अनीता सैनी: नहीं। मैंने अपने लेखन में इन दोनों भाषाओं के शब्दों का भरपूर इस्तेमाल किया है। भाव संप्रेषित करने के लिये भाषा को लचकदार होना ज़रूरी है। भारत में हिंदी-उर्दू एवं अँग्रेज़ी भाषाओं के शब्दों को लेखन में प्रचुर स्थान मिला है।
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अनीता जी क्या आप यह मानती हैं कि लोग लेखन से इस लिए जुड़ रहे हैं क्योंकि ये एक प्रभावी विजिटिंग कार्ड की तरह काम आ जाता है और यश, पुरस्कार विदेश यात्राओं के तमाम अवसर उसे इसके जरिए सहज उपलब्ध होने लगते हैं।
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अनीता सैनी: हाँ, हो सकता है ऐसा कुछ रचनाकारों के लिये संभव है। इस विषय पर मेरे पास अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
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आज के संदर्भ में कविसम्मेलनों को आप कितना प्रासंगिक मानते हैं और क्यों?
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अनीता सैनी: आजकल कवि-सम्मलेन राजनीतिक आयोजन हो गये हैं क्योंकि इनके आयोजकों का किसी विशेष विचारधारा के प्रचार-प्रसार का छिपा हुआ मक़सद होता है। हालाँकि कवि-सम्मलेन आज भी आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं क्यों
(माँ और बिटिया)
कि वहाँ श्रोताओं को प्रभावित करने के लिये हास्य-व्यंग प्रधान रचनाओं के प्राधान्य के साथ नया कुछ नहीं होता है।
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अनीता जी! अपने जीवन की किसी महत्वपूर्ण घटना या संस्मरण का उल्लेख भी तो कीजिए।
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अनीता सैनी: मेरे विवाहोपरांत एक घटना ने मुझे गंभीर चिंतन के लिये विवश किया। मेरे दूर के रिश्ते की बहन का पति सेना में था जिसकी शादी हुए पंद्रह दिन ही हुए थे कि ड्यूटी ज्वाइन करने का आदेश आ गया। लेकिन वक़्त ने सितम ऐसा ढाया कि तीन दिन बाद ही उस सैनिक की अर्थी गाँव आ गयी। बाद में मैंने उस बहन के कठिन संघर्ष की मर्मांतक पीड़ा से सराबोर कहानी सुनी जिसे पग-पग पर समाज के ताने और अपनों की उपेक्षा सहनी पड़ी। मैंने तब महसूस किया कि स्त्रियों के समक्ष ऐसी चुनौतियों का सामना करने की पर्याप्त क्षमता होनी चाहिए। अतः मैंने शिक्षा को महत्त्व देते हुए ख़ुद के पैरों पर खड़ा होना अपना स्वाभिमान समझा साथ ही अन्य स्त्रियों को शिक्षा की ओर प्रेरित किया।
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अनीता जी आपकी सोच से पाठकों को जरूर प्रेरणा मिलेगी।
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कृपया पाठकों को यह भी बताइए कि आपकी रचनाएँ अब तक कहाँ-कहाँ प्रकाशित हो चुकी हैं?
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अनीता सैनी: मेरे ब्लॉग 'गूँगी गुड़िया' एवं 'अवदत अनीता' के अतिरिक्त 'अमर उजाला काव्य' पर मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।
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आपकी दृष्टि में लेखन के लिए पुरस्कार की क्या उपयोगिता है? आजकल लोग गुमनाम लोगों को पुरस्कार देते रहते हैं इससे किसका भला होता है? रचनाकार का या पुरस्कार देनेवाले का?
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अनीता सैनी: महोदय, मैं इस पेचीदा प्रश्न का जवाब देने में अपने आप को सक्षम नहीं पाती। मैं एक नवोदित रचनाकार हूँ।
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आपकी अभी तक कितनी कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं? और किन-किन विधाओं में, आप अपने को मूलतः क्या मानते हैं-गीतकार ग़ज़लकार या मुक्त साहित्यकार?
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अनीता सैनी: मेरा काव्य-संग्रह 'एहसास के गुंचे' अति शीघ्र प्रकाशित होने जा रहा है जिसमें मुख्यतः मुक्त छंद की रचनाएँ हैं। फिलहाल तो मैं स्वयं को मुक्त-साहित्यकार ही मानती हूँ हालाँकि छंदबद्ध रचनाओं में दोहा एवं नवगीत लेखन भी करती हूँ।
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अब जरा यह भी बता दीजिए कि लेखन संबंधी आपकी भविष्य की क्या-क्या योजनाएं हैं?
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अनीता सैनी: यह तो भविष्य पर ही निर्भर है।
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साहित्य लेखन के अतिरिक्त आपकी अन्य रुचियाँ क्या हैं?
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अनीता सैनी: अध्ययन एवं अध्यापन।
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अनीता जी! आपको पसन्द क्या है और नापसन्द क्या है?
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अनीता सैनी: सीधी-सादी, सहज प्राकृतिक जीवन शैली पसंद है और दोहरे मापदंड वाला कृत्रिम जीवन नापसंद है।
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आप संयुक्त परिवार में रहती हैं या अपने एकल परिवार में?
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अनीता सैनी: मैं संयुक्त परिवार में अपने सास-ससुर और बेटा-बेटी के साथ रहती हूँ और पति राजकीय सेवा में हैं।
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आप ब्लॉगिंग में कब से हैं और ब्लॉग पर आना कैसे हुआ?
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अनीता सैनी: मैं ब्लॉगिंग में मई 2018 से हूँ। 'राजस्थान पत्रिका' के साप्ताहिक अंक में एक स्तम्भ के ज़रिये ब्लॉग संबंधी विस्तृत जानकारी मिली जिसके आधार पर मैंने अपना ब्लॉग तैयार किया और तकनीकी जानकारी उपलब्ध कराने में बेटे मोहित ने भरपूर सहयोग किया।
क्या आप राजनीति में भी रुचि रखती हैं क्या?
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अनीता सैनी: नहीं।
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अन्त में पाठकों को यह भी बताइए कि आप अपने लेखन के माध्यम से समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं?
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अनीता सैनी: लेखन हमेशा अस्तित्त्व में बना रहता है अतः परिवार,समाज, देश एवं दुनिया को मूल्याधारित विचार से जोड़ना और सकारात्मक परिवर्तन के साथ प्रकृति से प्रेम को बढ़ावा देना ही मेरा संदेश जिससे मानवीय संवेदना का सरोवर सूखने न पाये।
--
तो ये थे अनीता सैनी से पूछे गये उनसे जुड़े कुछ सवाल।
आशा है कि पाठक आपके इस साक्षात्कार को पसन्द करेंगे और उनके स्पष्ट जवाबों से प्रेरणा भी मिलेगी। मैं आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।
धन्यवाद अनीता जी!
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
साहित्यकार एवं समीक्षक
टनकपुर-रोड, खटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262308
मोबाइल-7906360576
Website. http://uchcharan.blogspot.com/
E-Mail . roopchandrashastri@gmail.com
--
आदरणीय शास्त्री जी का तह-दिल से सादर आभार जो उन्होंने मुझ जैसी नवोदित रचनाकार को अहमियत देते हुए मेरे लेखन को विस्तृत मंच प्रदान किया और साहित्य जगत में मेरा परिचय बढ़ाया.सादर आभार सर
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प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'लघुकथा डॉट कॉम' में मेरी लघुकथा 'सीक्रेट फ़ाइल' प्रकाशित हुई है। पत्रिका के संपादक-मंड...