"जीजी! एक कप चाय के बाद ही बर्तन साफ़ करुँगी।”
दरवाज़े के पास अपना छोटा-सा बैग रखते हुए किरण संकुचित स्वर में कहती है।
”ठीक है, तुम बाथरूम की बकेट साफ़ करो तब तक मैं चाय बनाती हूँ।”
मालती किरण को काम बताते हुए चाय बनाने लगती है।
”नहीं जीजी! सब काम बाद में करुँगी। पहले तुम्हारे हाथों से बनी चाय पीऊँगी। आप अदरक और काली मिर्च की चाय बहुत अच्छी बनाते हो।”
कहते हुए किरण हॉल में बिछी मैट पर पालथी मार बैठ जाती है।
” पल्लू के कितनी गठाने बांधे रखती हो,कहो क्या हुआ आज ऐसा?"
मालती चाय का कप किरण की ओर बढ़ाते हुए कहती है।
” वो तीन सौ छह वाली ठकुराइन है ना, अपनी बेटी को विदेश डॉ. बनन भेज रही।”
किरण दीवार का सहारा लेने के लिए कुछ पीछे खिसकती है।
”इसमें नया क्या है, आजकल ज़्यादातर लोग भेजते हैं।”
मालती बेपरवाही दर्शाते हुए कहती है।
” वो तो ठीक है परंतु मैंने भी अपने मर्द से कहा, पारुल को भेजते हैं, उसने बहुत खरी-खोटी सुनाई। कहा- अपने बाप के घर में देखे हैं कभी तीस लाख रूपए ? जिस घर को पच्चीस वर्षों से सींचती आई हूँ, अचानक लग रहा है जैसे किसी ने घसीटकर घर से बाहर निकाल दिया हो, अरे!समझा देता परंतु यों...।”
घुटने पर ठुड्डी टिकाए किरण नाख़ुन खुरचने लगती है।
"मन छोटा मत करो, तुम्हारा पति होश में पैसे का हिसाब लगा रहा था और तुम ममता के मोह में बह रही थीं।”
कहते हुए मालती घर का सामान व्यवस्थित करने लगती है।
”नहीं जीजी! इतने वर्षों में उसने कभी नहीं कहा।”
किरण की सूखी आँखें सहानुभूति की नमी में डूबने को तत्पर थीं, गर्दन कंधा ढूँढ़ रही थी किसी अपने का।
मालती के पास उसके लिए न सहानुभूति थी न सहारा,नित नई कहानी न सुनाए इसीलिए अनसुनाकर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाती है परंतु उसके शब्द कलेजे को बींध रहे थे।
”आप नहीं समझोगी जीजी! साहब की पलकों पर राज जो करती हो, रिश्ते जब बोझ बनने लगते हैं तब दीवारें भी काटने को दौड़ती हैं, अब तो लगता है मरे रिश्तों को कंधों पर ढो रही हूँ, लाश वज़न में ज़्यादा भारी होती है ना!”
कहते हुए किरण रसोई में बर्तन साफ़ करने लगती है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'