वहीं सड़क किनारे लाचारी पेड़ की छाँव में बैठी उन्नति से हाथ मिलाने की चाह में टूटती जा रही है।
गाँव और हाइवे का फ़ासला ज़्यादा नहीं है परंतु अंतर बहुत है।
हाइवे पर जहाँ आलीशान गाड़ियाँ दौड़ती हैं वहीं गाँव में ऊँट- गाडियों की मद्धिम चाल दिखती है।
हाइवे से इतर, उन्नति गाँव में फैलना चाहती है जैसे ही ऊँट-गाड़ी गाँव की तरफ़ रुख़ करतीं है उन्नति उन पर सवार होती है।
कभी ऊँट की थकान बन गिरती है, कभी ऊँट को हाँकने की ख़ुशी बन दौड़ती है तो कभी दोनों का आक्रोश बन आग बबूला होती है। अगर जगह न भी मिले तब वह चिपकती है ऊँट गाड़ी के टायर से मिट्टी की गठान बन।
कभी-कभी थक-हारकर वहीं पेड़ की छाँव में बैठती है। हाइवे को देखती है,देखती है जड़ता में लीन ज़िंदगियों की रफ़्तार।
ढलते सूरज का आसरा लिए कुछ क़दम चलती है उन्नति गाँव की औरतों के संग जो अभी-अभी उतरीं हैं तेज़ रफ़्तार से चलने
वाली ज़िंदगियों के साथ, उन्नति सवार होती है उनकी हँसी की खनक पर, सुर्ख़ रंग के चूड़े के सुर्ख़ रंग पर, क़दमों की गति पर,
कभी ओढ़नी के झीनेपन से झाँकती है जिसे उन औरतों ने छिपाया है थेले में सबकी निगाह से सबसे नीचे,कभी-कभी समा जाती है वह उन औरतों के मन में विद्रोही बन परंतु जैसे ही गाँव में प्रवेश करती हैं वे औरतें उसे छिटक देतीं हैं। स्वयं से परे मिट्टी के उस टीले पर,पेड़ों के झुरमुट में।
कई सदियाँ बीत गईं, उन्नति वहीं बैठी है निर्मोही और निरीह।
आज उस मिट्टी के टीले पर बैठे हैं कुछ नौजवान वे उन्नति को गाँव की शोभा बनाने की बातों में उलझे हैं। विषय बहुत गंभीर है,आवाज़ में जोश उत्साह उफनता नज़र आया।
वे नौजवान भविष्य बेचने को उतारु, भूख ठुकराने को तत्पर,उन्नति की चाह में होश गवाँ बैठे।
कहते हैं -
"भूख भटकाएँगे, फिर भी न मिली तब हम कुछ स्वप्न गिरवी रखेंगे।"
जोशीले नौजवान ने उन्नति हेतु स्वयं को दाँव पर लगाया।कुछ और नौजवानों में उत्साह जगाया।
जोखिम उठा कंधों पर, उन्नति को पाने की लहर-सी दौड़ी।
बुद्धि की चतुराई किसी के समझ न आई।
"चलना कहाँ है ?"
मन का डर एक पल बुदबुदाया।
हिम्मत कहती है -
" बुद्धि कहते हैं उसे हमें भी सर-माथे बिठानी होगी।"
उन्नति की चाह में गाँव के नौजवानों ने बुद्धि से हाथ मिलाया।
सर-माथे बिठा, आदेश को आँखों पर सजाया।
उन्नति दुल्हन-सी शरमाई।
"हाँ! अब मैं प्रवेश करुँगी गाँव में सदियों बाद एक उम्मीद-सी इठलाई,नौजवानों की सांसों में सुकून बन इतराई।"
धीरे-धीरे उन्नति निखरती आई। गाँव की गलियों में अशोक के वृक्ष-सी लहराई ।
बदले में नौजवानों ने गाँव का अन्न लुटाया, अपनों को भूखा सुलाया जो न माना उसे पानी पिलाकर सुलाया।
उन्नति की चाह ने सभी को नंगे पाँव दौड़ाया,उस दिन से लाचारी चौखट पर बैठी, भूख ने एक-एक निवाले को तरसाया।
बुद्धि ने अब बैल-बुद्धि का रुख़ अपनाया।
गाँव में हौज़ बनवाया पानी अभी तक न आया
सड़क के पत्थर रेत में समाए।
बुद्धि ने नौजवानों को और झाँसे में ले उन्नति के नाम की बैसाखी थमाई उस पर इच्छाओं की घंटी लगवाई।
गाँववालों को भूख से कुपोषित करवाया। किसी की ज़मीन, किसी के बैल गिरवी रखवाए।गृह-क्लेश उनके हाथों में ज़िंदगी जहन्नुम बना ख़ामोशी पहन रियायत बाँटने निकली।
सड़क बनवाई उस पर पानी को दौड़ाया, लैंम्प पोस्ट के लट्टू की रोशनी निखर-निखरकर आई।जहाँ पानी का अभाव वहाँ पानी निकालने की नालियाँ नज़र आईं।
और तो और पुराना ऐतिहासिक पंचायत भवन को गिरा नए का शिलान्यास करवाया। नौजवानों के हाथों में लोहे के निवाले थमाए,वृद्धों के लिए मनोरंजन की व्यवस्था करवाई।
बुद्धि ने कहा-
"उन्नति है!"
@अनीता सैनी 'दीप्ति'