बारह महीनों वह काम पर जाता। रोज़ सुबह कुल्हाड़ी, दरांती कभी खुरपा-खुरपी तो कभी फावड़ा, कुदाल और कभी छोटी बाल्टी के साथ रस्सी लेकर घर से निकल जाता। शाम होते-होते जब वह वापस घर लौटता तब गुनहगार की भांति नीम के नीचे गर्दन झुकाए बैठा रहता। दो वक़्त की रोटी और दो कप चाय के लिए रसोई को घूरता रहता।
बाहर बरामदे में खाट पर बैठी उसकी बूढ़ी माँ, उसके द्वारा मज़दूरी पर ले जाए गए औज़ार देखकर तय करती कि आज उसकी मज़दूरी क्या और कितनी होगी? उसी के साथ यह भी तय करती कि शाम को घर लौटेगा कि न
”आज कुल्हाड़ी लेकर नहीं! फावड़ा, कुदाल और छोटी बाल्टी के साथ रस्सी लेकर निकला है, अब पाँच दिन तक घर की ओर मुँह नहीं करेगा।” उसके जाते ही उसकी बूढ़ी माँ रसोई की खिड़की की ओर मुँह करते हुए ज़ोर से आवाज़ लगाती है। उसकी पत्नी बुढ़िया का मंतव्य समझ जाती कि वह क्या कहना चाहती है।
” जगह है क्या उसे कहीं और?” इन्हीं शब्दों के साथ रसोई में दो-चार बर्तन गिरने की आवाज़ के साथ ही वह खाली पड़े पतिलों को ताकती है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (19-11-2022) को "माता जी का द्वार" (चर्चा अंक-4615) पर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
निशब्द!!
ReplyDeleteएक मेहनतकश निर्धन परिवार की मनोदशा को बहुत ही सहजता से उकेरा है आपने।
हृदय स्पर्शी लघुकथा।
बहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा ।
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