” न री ! पाप के पैरों घुँघरु न बाँध; तेरे कलेजे पर ज़िंदा नाचेगा ज़िंदगी भर।”
बुलिया काकी का अंतरमन उसे कचोटता है। हाथों में लहू से लथपथ बच्ची को माँ के पेट पर डालती है और बाँस का टुकड़ा टटोलने लगती है।
"अरे आँखें खोल शारदा! वे ले जाएँगे करमजली को।"
बुलिया काकी नाल काटते हुए शारदा को होश में लाने का प्रयास करती है। शारदा की यह चौथी बिटिया थी, दो को ज़िंदा दफ़ना दिया, एक दरवाज़े के बाहर बाप के पैरों से लिपटी खड़ी है। कि इस बार वह अपने भाई के साथ खेलेगी।
”काकी-सा इबके लला ही आया है ना...।”
दर्द से कराहते, लड़खड़ाते शब्दों के साथ प्रसन्नचित्त स्वर में शारदा पूछती है।
" ना री तेरा द्वार पहचानने लगी हैं निर्मोही, मेरे ही हाथों जनती हैं मरने को।"
बुलिया काकी माथा पीटते हुए वहीं चारपाई पर बैठ जाती है। शारदा लटकते पल्लू से बच्ची को ढक लेती है।
"काकी-सा दरवाज़ा खोल दो, उन्हें अंदर आने दो….।"
शारदा दबे स्वर में दरवाज़े की ओर इशारा करती है।
स्वर भारी था-” काकी बिटवा है ना?"
मदन चारपाई के पास झुकता हुआ पूछता है। दोनों औरतें एक टक मदन को ख़ामोशी से घूरतीं हैं मदन लड़की को बिना देखे ही समझ लेता है कि लड़की हुई है,पैर पकड़ वहीं काकी के पास बैठ जाता है।
"वे आप के माँ-बाप थे? आप थी वह लड़की या कोई और ?" स्मृतियों में खोई पार्वती दादी को नीता टोकते हुए कहती है।
पार्वती दादी स्मृति में डूब चुकी थी समय लगता था उन्हें वापस आने में।
"मदन न मारता, अपनी बेटियों को! दहेज का दानव आता, उठा ले जाता गाँव की बेटियों को, माँ- बाप तो कलेजा पीटते, कोई छुड़ाता न था।"
पार्वती दादी के चेहरे की झुर्रियों से झाँकती पीड़ा कई प्रश्न लिए खड़ी,दो घुँट पानी पिया और पथरई आँखों से घूरते हुए कहती।
"आज भी खुले आम घूमता है दानव, जो बेटियाँ बहादुर होती हैं जीत लेती हैं, जो लड़ना नहीं जानती उसे उठा ले जाता है आता तो आज भी है, गला नहीं घोंटता, धीरे-धीरे ख़ून चूसता है, हाँ आता तो आज भी है।”
पार्वती दादी पूर्ण विश्वास के साथ अपने ही शब्दों का दोहराव करती हैं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
दहेज़ आज भी कायम है । सरकार के इतने लम्बे हाथ होने के बाद भी दहेज़ को खत्म नहीं कर पाई है । यह कब तक चलेगा ?
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर
"आज भी खुले आम घूमता है दानव, जो बेटियाँ बहादुर होती हैं जीत लेती हैं, जो लड़ना नहीं जानती उसे उठा ले जाता है आता तो आज भी है, गला नहीं घोंटता, धीरे-धीरे ख़ून चूसता है “
ReplyDeleteनिःशब्द हूँ आपके सृजन के समक्ष..अन्तर्मन के झकझोरती गहन लघुकथा जिसे पढ़ कर बेटियों के लिए बेबस स्त्री समूह की लाचारी पर आँखें नम हो गईं ।
कृपया *अन्तर्मन को* पढ़े ।
Deleteसमाज में व्याप्त कुरीतियों ने औरत को मानसिक रूप से जकड़ रखा है। बहुत से ऐसे दृश्य आस पास दिखते है लेकिन उन्हें अनदेखा करना पड़ता है। हृदय से आभार मीना दी जी संबल बनती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-03-2022) को चर्चा मंच "कटुक वचन मत बोलना" (चर्चा अंक-4385) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हृदय से आभार आदरणीय सर मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
इतना दारुण चित्र उपस्थित किया है आपने, अंतर को झकझोरती लघुकथा ।
ReplyDeleteमजबूरियां कितनी तरह की होती है, जो लगातार न चाहते हुए भी अमानुषिक कृत्य करवाती है।
असाधारण प्रस्तुति।
बेटी के पैदा होते ही माँ बाप और समाज की जो मनोवर्ती है वो सच में बड़ी पीड़ा दाय है। ब्लैक बोर्ड पर लिखा हो तो पल में मिटा दे परंतु लोगो का दृष्टि कोण कैसे बदले, कैसे परिभाषित करें कि औरत होना कितने सौभाग्य की बात है। हृदय से आभार आदरणीय कुसुम दी जी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
दहेज जैसी कुरीति पर कई प्रश्न उठाती मार्मिक रचना
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय अनीता जी आप ब्लॉग पर आए और अपने विचारों से अवगत करया।
Deleteसादर स्नेह
सही कहा दहेज जैसी कुरीति अभी भी कायम है। न जाने कितनों को ले जाता है ये दानव।
ReplyDeleteसही कहा अनुज विकास अभी भी क़ायम है शादी के प्रथम वर्षों में लड़की को इस नाजुक दौर से गुजरना पड़ता है।
Deleteहृदय से आभार आपका।
सादर
आज भी बेटियों के साथ ये अन्याय हो ही रहा है। आज आधुनिक युग में भी समाज के इस अंधकार को दर्शाती सुंदर लघु कथा
ReplyDeleteसही कहा आपने कामिनी जी समझ कर भी नासमझ बनता जा रहा समाज बेटियों से त्याग ही मांगता है।
Deleteहृदय से आभार आपका संबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
सादर
वाह ! हमारी सड़ी-गली लैंगिक असमानता की सोच पर और दहेज़ के लोभियों के गालों पर, ज़ोरदार तमाछे जड़ती हुई लघ-कथा !
ReplyDeleteआदरणीय सर हृदय से आभार आपका मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु। आपके विचार हमेशा ही सराहनीय रहें हैं। सर स्त्री कुदरत का एक बहुत ही अनमोल उपहार है पृथ्वी पर, स्त्री की गरिमा बहुत बहुत ऊपर है इस लिए नहीं कि मैं एक स्त्री हूँ। बल्कि यहीं शाश्वत सत्य भी है समाज को समझना चाहिए न कि इसे नकारे।
Deleteसादर प्रणाम
हृदय को अ़दर तक छू गई आपकी रचना प्रिय अनीता ।
ReplyDeleteहृदय से आभार प्रिय शुभा दी जी आपकी प्रतिक्रिया मेरा संबल है।
Deleteसादर स्नेह
बहुत सुन्दर भावपूर्ण सृजन
ReplyDeleteहृदय से आभार अनुज।
Deleteसादर
उफ्फ ! रोंगटे खडे़ कर देने वाला बहुत ही कटु सत्य ...। कल दहेज लोभियों के हाथों मरेंगी तो जन्मदाता ही जिंदा गाड दें अपने कलेजे के टुकड़े को....बहुत ही मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी शब्दचित्रण।
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय दी सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर