Thursday, 16 January 2020
अंधा बाँटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह के देय
"बुआ टंच तो आज काल पैदा होते ही बच्चे बन जा हैं। मैंने तो फिर भी तीस साल खायीं हैं।थे बताओ दीदा-गोडा ठीक,ब्याज़ का धंधा चालू है कि छोड़ दिया ?"

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स्वप्न नहीं! भविष्य था
स्वप्न नहीं! भविष्य वर्तमान की आँखों में तैर रहा था और चाँद दौड़ रहा था। ”हाँ! चाँद इधर-उधर दौड़ ही रहा था!! तारे ठह...
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वाह बहुत शानदार व्यंग्य मुहावरे पर सटीक सृजन ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेखनी।
सादर आभार आदरणीय दीदी
Deleteबहुत बढिया व्य6ग, अनिता दी।
ReplyDeleteवाह बहुत ही बेहतरीन 👌👌
ReplyDeleteसुगढ़ संतुलित लघुकथा जो व्यक्ति, समाज, रिश्ते,देश और सरकार व प्रशासन को संक्षिप्तता के दायरे में चित्रित किया है. स्थानीय बोली और मुहावरों व कहावतों का सटीक प्रयोग लघुकथा को रोचक और मनोरंजक बनाता है.
ReplyDeleteप्रस्तुत लघुकथा उत्कृष्ट लघुकथा के मानदंडों को लगभग पूरा करती नज़र आती है.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
वाह!!प्रिय सखी ,बहुत खूब !!
ReplyDeleteअनीता, तुम्हारी कहानी में सच ही सच है.
ReplyDeleteकारगिल के शहीदों में अल्मोड़ा के कई जवान सम्मिलित थे. सरकार से पैसे, पेंशन, नौकरी और अन्य सुविधाओं के लिए शहीदों के घरों में ही मारा-मारी होते हुए मैंने देखी है. पैसे को लेकर शहीद की विधवा से शादी करने की लोगों में होड़ रहती थी. लक्ष्मी जी की भक्ति कैसे एक त्रासदी को गृह-कलह में बदल देती है, यह देख कर रोना भी आता है और शर्म भी आती है
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२० जनवरी २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुन्दर और रोचक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत खूब रही!
ReplyDeleteबहुत ही हृदयस्पर्शी व्यंग्यात्मक लघुकथा लिखी है आपने अनीता जी! सचमुच अंधा बाँटे रेवड़ी के मुहावरे पर फिट बैठती हुई....
ReplyDeleteहृदयस्पर्श करती सुंदर लघु कथा ,अनीता जी
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteअधम नैतिकता का वीभत्स चेहरा !!!
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