”मौत कभी पृष्ठभूमि बनाकर नहीं आती,दबे पाँव कहीं भी चली आती है।”
कहते हुए सुखवीर उठकर बैठ जाता है।
”खाली रिवॉल्वर से जूझती मेरी अँगुलियाँ! उसका रिवॉल्वर मेरे सीने पर था। नज़रें टकराईं! कमबख़्त ने गोली क्यों नहीं चलाई?”
सुखवीर माँझे में लिपटे पंछी की तरह छटपटाता हुआ अर्पिता की गोद में अपना सर रखता है।मौत का यों गले मिलकर चले जाना सुखवीर के लिए अबूझ पहेली बन गई।अर्पिता के हाथ को सहलाते हुए उसकी हस्त-रेखाएँ पढ़ने का प्रयास करता है।
”वह सतरह-अठारह वर्ष का बच्चा ही था ! हल्की मूँछे, साँवला रंग, लगा ज्यों अभी-अभी नया रंगरूट भर्ती हुआ हो ?”
दिल पर लगी गहरी चोट को कुरेदते हुए,सुखवीर बीते लम्हों को मूर्ति की तरह गढ़ता है।आधी रात को झोंपड़ी के बाहर गूँजते झींगुरों का स्वर उस मूर्ति को ज्यों ताक रहे हों।
”भुला क्यों नहीं देते उस वाक़िया को?”
सुखवीर के दर्द का एक घूँट चखते हुए, अर्पिता उसका सर सहलाने लगती है।
फड़फड़ाते मोर के पंखों का स्वर, तेज़ क्रन्दन के साथ पेड़ की टहनियों से निकलते हुए,मध्यम स्वर में बोलते ही जाना। स्वर सुनकर दोनों की नज़रें खिड़की से निकल खेतों की ओर टहने निकल पड़ती हैं।
ख़ामोशी को तोड़ते हुए सुखवीर कहता है-
” फौजी पर बंदा एहसान कर गया, सांसें उधार दे कर !”
हृदय की परतों को टटोलते हुए सुखवीर अर्पिता को एक नज़र देखते हुए उसी घटना में डूब जाता है। मन पर रखे भार को कहीं छोड़ना चाहता है।अर्पिता को लगा कि वह टोकते हुए कहे- ”वह पल सौभाग्य था मेरा।” परंतु न जाने क्यों ख़ामोशी शब्द निगल जाती है। महीनों से नींद को तरसती आँखें विचारों में प्रेम ढूँढती हैं। मुट्ठी में दबा ज़िंदगी का टुकड़ा सुखवीर को कहीं चुभता है एक आह के साथ बोल फूट ही पड़ते हैं।
”बंदे को ऐसा नहीं करना चाहिए था !”
नींद ने ज्यों पानी से भीगी पलकों पर दस्तक दी हो!सुखवीर आँखें बंद कर लेता है, देखते ही देखते हल्के झोंके के साथ स्वाभिमान का भारी दरख़्त टूट कर धरती पर गिर पड़ता है, गिरने के तेज़ स्वर से सहमी अर्पिता सुखवीर को सीने से लगा लेती है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
अद्भुत.....!
ReplyDeleteहृदय से आभार सर।
Deleteसादर
मंजी हुई कलम, एक लीक से हटकर लिखी गई लघुकथा उच्चकोटि की लघुकथाओं में गिनती होगी कभी ऐसा मेरा विश्वास है ।
Deleteहृदय से आभार आदरणीया सरोज दहिया दी जी आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ।
Deleteआशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
अद्भुत…,लघुकथा का ताना-बाना प्रभावशाली कथानक और संवाद शैली से गूँथा गया है जो पढ़ने के बाद मस्तिष्क पर छाप छोड़ता है ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
सराहनीय
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका उत्साहवर्धन प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
सुन्दर भाव लिये हुए है ।
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
हृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-04-2022) को चर्चा मंच "धर्म व्यापारी का तराजू बन गया है, उड़ने लगा है मेरा भी मन" (चर्चा अंक-4406) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' --
आभारी हूँ सर मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
उम्दा लेखन
ReplyDeleteहृदय से आभार अनुज।
Deleteसादर
एक जीवंत कहानी.
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
सुन्दर लेखन
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय सर।
Deleteसादर
मार्मिक
ReplyDeleteहृदय से आभार अनीता जी।
Deleteसादर
स्वाभिमान का दरख्त टूट ही जाता है आखिर ...जिंदगी से मोह जो जाता है....
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर मार्मिक सृजन।
हृदय से आभार प्रिय सुधा दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
Deleteसस्नेह आभार
सुंदर.. आगे जानने को उत्सुक करता टुकड़ा...हो सके तो इसे विस्तार देवें मैम...
ReplyDeleteजी अनुज!अगर माँ सरस्वती का आशीर्वाद रहा तो कभी आर्मी लाइफ पर नॉवेल लिखूँगी।। हृदय से आभार आपको लघुकथा अच्छी लगी।
Deleteसादर
वाह अनीता !
ReplyDeleteखैरात में मिली ज़िंदगी, कभी-कभी मौत से भी बदतर लगती है.
आदरणीय गोपेश मोहन जी सर अनेकानेक आभार आपका लघुकथा का मर्म स्पष्ट करती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसच सर ऐसे दर्द को झेल पाना बड़ा कठिन होता है।
आशीर्वाद बनाए रखें।
सादर प्रणाम
फौजियों के लिए इस तरह मिला जीवन भी निकृष्ट जो जाता है ।।एक सच्चे सैनिक के मन की उथल पुथल को सार्थक शब्द दिए हैं ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीया संगीता स्वरूप दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
Deleteआशीर्वाद बनाए रखें।
सादर