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Monday 1 May 2023

सीक्रेट फ़ाइल

         प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'लघुकथा डॉट कॉम' में मेरी लघुकथा 'सीक्रेट फ़ाइल' प्रकाशित हुई है।

पत्रिका के संपादक-मंडल का सादर आभार।

आप भी पढ़िए मेरी लघुकथा:

https://www.laghukatha.com/

                     सूरज के तेवर के साथ ट्रैफ़िक की आवाजाही भी बढ़ती जा रही थी, इंतज़ार में आँखें स्कूल-बस ताक रही थीं। अपनेपन की तलाश में प्रतिदिन की तरह निधि, प्रभा के समीप आकर खड़ी हो गई और बोली-

             "पता नहीं क्यों, आजकल रोज़ रात को बिजली गुल हो जाती है?

और आपके यहाँ ?” उसने माथे पर पड़े लाल निशान को रुमाल से छुपाने का प्रयास किया।

" हाँ! अक़्सर…।” प्रभा ने निधि की पीड़ा मौन में सिमटे दो शब्दों के छोटे से झूठ से पोंछी।

”कभी कोहनी चौखट से टकरा जाती है तो कभी पैर बैड से…। उस दिन वाली चूड़ियाँ तुमने कहा था बहुत अच्छी हैं, वे ऐसे ही टूट गई थीं।" सहसा फ़ाइलें उसके हाथ से छूट गईं। सी…के स्वर के साथ वह फ़ाइलें उठाने झुकी।

" विषय-विषय की बात होती है! कुछ विषयों में बिलकुल भी काम का वर्डन नहीं रहता है जैसे तुम्हारे।” इस बार काम के बोझ की सलवटें उसके माथे पर गहरे निशान छोड़ गईं।

           बस-स्टॉप पर कुछ ही समय के लिए वह ख़ुद को शब्दों में यों उलझाने का सघन प्रयास करती रही, परंतु आँखों को कुछ कहने से रोक नहीं पाई। प्रभा को लेकर उसकी जिज्ञासा निरंतर बढ़ती ही जा रही थी जैसे देर-सवेर ठंडी हवा बेचैनी का सबब बन ही जाती है।

" तुम बताओ? तुम कभी नहीं टकरातीं…?” निधि ने अपने गले पर पड़े उँगलियों के निशान पर दुपट्टा डाला।

" नहीं! मैं बच्चों के साथ अकेली रहती हूँ, मेरे पति बाहर रहते हैं।” स्नेह में भीगी हल्की मुस्कान के साथ प्रभा ने ज्यो ही निधि के कंधे पर हाथ रखा, उसने देखा; सूरज पर किसी ने ढेरों बाल्टी पानी उड़ेल दिया है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Saturday 1 April 2023

विसर्जन



                   ”गणगौर विसर्जन इसी बावड़ी में करती थीं गाँव की छोरियाँ।”

  बुआ काई लगी मुंडेर पर हाथ फेरती हुई उस पर बचपन की स्मृतियाँ ढूंढ़ने लगी।

 दादी के हाथों सिले घाघरे का ज़िक्र करते हुए बावड़ी से कह बैठी -

”न जाने कितनी छोरियों के स्वप्न लील गई तु! पानी नहीं होता तो भी तुझमें ही पटककर जाती।”

आँखें झुका पैरों में पहने चाँदी के मोटे कड़ों को हाथ से धीरे-धीरे घुमाती साठ से सोलह की उम्र में पहुँची बुआ उस वक़्त, समय की चुप्पी में शब्द न भरने की पीड़ा को आज संस्कार नहीं कहे।

" औरतें जल्दी ही भूल जाती हैं जीना कब याद रहता है उन्हें कुछ ?”

 बालों की लटों के रूप में बुआ के चेहरे पर आई मायूसी को सुदर्शना ने कान के पीछे किया।

" उस समय सपने कहाँ देखने देते थे घरवाले, चूल्हा- चौकी खेत-खलिहान ज़मींदारों की बेटियों की दौड़ यहीं तक तो थीं?”

जीने की ललक, कोंपल-से फूटते स्वप्न; उम्र के अंतिम पड़ाव पर जीवन में रंग भरतीं सांसें ज्यों चेहरे की झूर्रियों से कह रही हों तुम इतनी जल्दी क्यों आईं ?

चुप्पी तोड़ते हुए सुदर्शना ने कहा-

"छोरियाँ तो देखती थीं न स्वप्न।”

"न री! बावड़ी सूखी तो तालाब, नहीं तो कुएँ और हौज़ तो घर-घर में होते हैं उनमें डुबो देती हैं।”

”स्वप्न या गणगौर ?”

सुदर्शना ने बुआ को टटोलते हुए प्रश्न दोहराया।

 हृदय पर पड़े बोझ को गहरी साँस से उतारते हुए सावित्री बुआ ने धीरे से कहा-

"स्वप्न।” 


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Saturday 14 January 2023

स्वप्न नहीं! भविष्य था



                       स्वप्न नहीं! भविष्य वर्तमान की आँखों में तैर रहा था और चाँद  दौड़ रहा था।

 ”हाँ! चाँद इधर-उधर दौड़ ही रहा था!! तारे ठहरे हुए थे एक जगह!!!”  स्वयं को सांत्वना देते हुए उसने भावों को कसकर जकड़ा।

धरती का पोर-पोर गहरी निद्रा में था। भूकंप की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। तूफ़ान दसों दिशाओं को चीरता हुआ चीख़ रहा था। दिशाओं की देह से टपक रहा था लहू जिसे वे बार-बार आँचल से  छुपा रही थीं। इंसान की सदियों से जोड़ी ज़मीन, ख़रीदा हुआ आसमान एक गड्ढे में धँसता जा रहा था।

”धँस ही रहा था।हाँ! बार-बार धँस ही तो रहा था।” गहरे विश्वास के साथ उसने शब्दों को दोहराया।

चेतन-अवचेतन के इस खेल में उसे घड़ी की टिक-टिक साफ़ सुनाई दे रही थी।

हवा के स्वर में हाहाकार था, रेत उससे दामन छुड़ा रही थी। वृक्ष एक कोने में चुपचाप पशु-पक्षियों को गोद में लिए खड़े थे।उनकी पत्त्तियाँ समय से पहले झड़ चुकी थीं। सहसा स्वप्न के इस दृश्य से विचलित मन की पलकें उठीं, अब उसने देखा सामने खिड़की से चाँद झाँक रहा था।

”हाँ! चाँद झाँक ही रहा था!! न कि दौड़ रहा था।” उसने फिर विश्वास की गहरी सांस भरी।

 फूल,फल और पत्तों रहित वृक्ष एक दम नग्न अवस्था में  उसे घूर रहे थे वैसे ही अपलक घूर रही थी पड़ोसी देश की सीमा। देखते ही देखते सीमा के सींग निकल आए थे। सींगों के बढ़ते भार से वह चीख रही थी। वहाँ स्त्री-पुरुष चार पैर वाले प्राणी बन चुके थे। वे हवा में अपनी-अपनी हदें गढ़ रहे थे। बच्चे भाषा भूल गूँगे-बहरे हो चुके थे। समय अब भी घटित घटनाओं का जाएज़ा लेने में व्यस्त था। मैं मेरे की भावना खूँटे से आत्ममुग्धता की प्रथा को बाँधने घसीट रही थी।

उसने ख़ुद से कहा- ”उठो! तुम उठ क्यों नहीं रहे हो? देखो! जीवन डूब रहा है।”

अर्द्धचेतना में झूलती उसकी चेतना उसे और गहरे में डुबो रही थी।

वह चिल्लाया! बहुत ज़ोर से चिल्लाया परंतु उससे चिल्लाया नहीं गया। वह गूँगा हो चुका था ! ”हाँ! गूँगा ही हो चुका था!! ” उसने ने देखा! उसके मुँह में भी अब जीभ नहीं थी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Wednesday 28 December 2022

बोझ

               


                ”पिछले दो वर्ष से कंधों पर ढो रहा है, अब और कितना ढोएगा इसे?” उसकी माँ ने रुँधे गले से कहा।

उसके घर के बाहर चबूतरे पर घर के अन्य सदस्यों के साथ बैठे थे उस लडके के सास-ससुर ।

वह अपराधी की भांति दीवार के सहारे खड़ा बारी-बारी से उन सभी का चेहरा घूर रहा था।

उसकी पत्नी सामने चौके में बैठी हर पाँच-दस मिनट में अपने बैठने की मुद्रा बदल रही थी। वह अपने कान उस दीवार पर टाँगना चाहती थी जहाँ पर उसी को विषय बनाकर चौपाल सजा रखी  थी।

"आज नहीं तो कल इसे मर ही जाना है... फिर…?” उसकी माँ ने सहानुभूतिपूर्ण निगाहों से अपने बेटे की ओर देखते हुए कहा।

”ऊपर से तीन-तीन छोरियाँ !” उसके पिता ने आँगन में खेल रही लड़कियों की ओर इशारा करते हुए कहा।

” साली इसके है नहीं! कुँवारी लड़की इसको कोई देगा नहीं!! तो क्या दो बच्चों की माँ को ला कर बैठाएगा घर पर ?”

उसके बड़े भाई ने झुँझलाते हुए कहा और वहाँ से उठकर चला गया।

”तो क्या ऐसे ही मरने के लिए छोड़ दें इसे …?” माँ ने बड़े बेटे को नथुने फुलाकर घूरते हुए कहा।

”ब्रैस्ट कैंसर ही तो है…इलाज चल रहा है, शायद ठीक ही हो जाए!" उस औरत के भाई ने मिट्टी पर  लकड़ी चलाते हुए कहा।

”किसी और बड़े अस्पताल में बात करके देखते हैं।” औरत के पिता ने घर की ओर चौके में निगाह दौड़ाई और अपनी बेटी को लाचार नज़रों से देखते हुए कहा।

" अजी दूसरा ब्याह करवा देंगे ! पहाड़-सा जीवन अकेला थोड़ी काटेगा!” उसकी माँ ने कहा और उसने ना में गर्दन झुकाई।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Saturday 24 December 2022

डर

           


                                   जब से सुगणी गाँव से शहर आई थी। घर की दहलीज पर खड़ी रहती। आते-जाते लोगों को देखती और देखती ही रह जाती।उसे भी वैसे ही काजल, बिंदी और चूड़ी चाहिए होती जैसी उसकी सखी सहेलियों के पास होती।

उसकी सहेली ने बताया इसे देखना नहीं आता फिर झुँझलाकर उसी ने कहा-”अरे! दिखता ही नहीं है इसे।”

 साँची ने सुगणी से पूछा तब उसने कहा-

"सब कहते हैं मेरी आँखें नहीं हैं, मेरी आँखों को जो जँचता है वह मेरे आदमी को नहीं जँचता।” कहते हुए वह अपलक कोरे आसमान को घूरने लगी।बड़ी-सी बिंदी, उससे भी बड़ी नथनी और उससे भी बड़ी-बड़ी आँखें। उन आँखों में रमे काजल पर ठहरी लालासा की दो बूँदें, जिसे उसकी आँखें बड़ी चतुराई से घोलकर पी लिया करती थी।

"मुझे देखने ही कब दिया? पहले मेरी माँ! फिर इसकी माँ!!  अब यह खुद!!!" न चाहते हुए भी वह भोर-सी बिखर गई, रात की चादर में नजरिया ढूँढ़ती।

”कुछ समय पहले तक मेरे पास भी आँखें नहीं थीं, लोग दिखाते मैं भी वही देख लेती।" साँची ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

" सच कह रही हैं आप! मेरा उपहास तो नहीं उड़ा रही न?.” वह हल्की-सी हँसी के साथ कुछ शरमाई और फिर खुद में सिमटकर रह गई।

"नहीं सच! कसम से!!” साँची ने विश्वास के साथ कहा।

"फिर!” वह धीरे से बोली।

" फिर क्या? फिर मेरे चेतना के अँखुए उग आए उन्हें महसूस किया। कुछ समय पश्चात धीरे-धीरे मुझे दिखने लगा।” साँची ने उसके विश्वास को और गहरे विश्वास के रंग में रंगते हुए कहा और उसने पैर होले से चौखट के बाहर रखा।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


Thursday 8 December 2022

मुखरित मौन

                   


                           "काल के क़दमों की आहट हूँ मैं! मेरा प्रभुत्व समय की परतों पर लिखा है।”  चट्टानों पर अपने नाम को अंकित करते हुए पुरुष ने स्त्री से कहा।

”ओह! बादल बरसे तब जानूँ मैं !” जेष्ठ महीने की तपती दुपहरी में स्त्री ने पुरुष  को परखते हुए कहा। कुछ समय पश्चात काली-पीली घटाएँ उमड़ी और बरसात की बूँदों से मिट्टी महक उठी जिसकी ख़ुशबू से  मुग्ध स्त्री झूम उठी।

” ठीक है! अब धूप के टुकड़े बिखेरकर बताओ तब लगे तुझ में कोई बात है!” साँझ के बढ़ते क़दम देख स्त्री ने पुरुष से फिर कहा।तभी माथे पर इंद्रधनुष सजाए कुछ पल के लिए आसमान धूप से चमक उठा।

"अच्छा! अब साँझ के आँगन में दीप जला कर दिखाओ ।" स्त्री ने पुरुष के सीने से लगते हुए कहा। पलक झपकते ही आसमान में तारे चमक उठे। चाँद उनकी टोह लेने देहरी पर खड़ा था। दोनों का प्रेम परवान चढ़ ही रहा था कि प्रेम में आकंठ डूबी स्त्री ने पुरुष से एक और इच्छा जताते हुए कहा- "चलो! अब मुझे पंख लगा दो।” सहसा स्त्री के शब्दों से पुरुष बिफर उठा।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Thursday 1 December 2022

दर्द का कुआँ

                    


                           वह साँझ ढलते ही कान चौखट पर टांग दिया करती और सीपी से समंदर का स्वर सुनने को व्याकुल धड़कनों को रोक लिया करती। बलुआ मिट्टी पर हाथ फेरती प्रेम के एहसास को धीरे-धीरे जीती।

हवा के झोंके से हिली साँकल के हल्के स्वर पर उसकी आँखें बोल पड़ती और वह झट से उठकर दूर तक ताकती सुनसान रास्तों को जिन पर सिर्फ़ चाँद-सूरज का ही आना-जाना हुआ करता था।

     उसका प्रेम दुनिया के लिए पागलपन और उसके लिए एहसास था जिससे सिर्फ़ और सिर्फ़ वही जीती। घर पर नई रज़ाई और एक गद्दा रखती।

 कहती- ”पता नहीं किस बखत उसका  आना हो जाए? आख़िर घर पर तो सुख से सोए।”

हवाएँ कहतीं हैं-  कारगिल-युद्ध का स्वर सुनाई देता था उसे,वही स्वर होले-होले लील गया। वह मुंडेर पर रोटी रख कौवे के स्वर से हर्षा उठती परंतु आसमान में उड़ते हवाई जहाज़ के स्वर से घबरा जाती। अकेली नहीं रहती खेत पर! पति ने  पानी का कुआँ खुदवाकर दिया था। उसी के साथ रहती थी।

कभी कभार भोलेपन से कहती - ”कोई मेरा कुआँ चुरा ले गया तो! ” गाँव उसके लिए शहर था और शहर एक स्वप्न नगरी।

उसकी सहजता ने ही गाँव भर में ढिंढ़ोरा पिटवा दिया  कि "ग़रीब घर की लड़की थी। कुछ देखा-भाला था नहीं, पानी का कुआँ देखा; इसी से दिल लगा बैठी।”

उसके घर से कुछ दूरी पर एक सत्य का वृक्ष था , वह सत्य ही बोलता। कहता -” बच्चों को मायके लेकर गई थी, घरवालों ने पीछे से शहीद का दाह-संस्कार कर दिया। रहती भी तो गाँव के बाहर थी कौन आता कहने?  साल-छः महीने बाद पता चला तभी से वैताल बनी घूमती थी इसी चारदीवारी में, आने-जाने वालों से एक ही प्रश्न पूछती - " युद्ध कब ख़त्म होगा?”


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Thursday 17 November 2022

भूख


                    बारह महीनों वह काम पर जाता। रोज़ सुबह कुल्हाड़ी, दरांती कभी खुरपा-खुरपी तो कभी फावड़ा, कुदाल और कभी छोटी बाल्टी के साथ रस्सी लेकर घर से निकल जाता। शाम होते-होते जब वह वापस घर लौटता तब गुनहगार की भांति नीम के नीचे गर्दन झुकाए बैठा रहता। दो वक़्त की रोटी और दो कप चाय के लिए रसोई को घूरता रहता था।

बाहर बरामदे में खाट पर बैठी उसकी बूढ़ी माँ, उसके द्वारा मज़दूरी पर ले जाए गए औज़ार देखकर तय करती कि आज उसकी मज़दूरी क्या और कितनी होगी? उसी के साथ यह भी तय करती कि शाम को घर लौटेगा कि नहीं।

”आज कुल्हाड़ी लेकर नहीं! फावड़ा, कुदाल और छोटी बाल्टी के साथ रस्सी लेकर निकला है, अब पाँच दिन तक घर की ओर मुँह नहीं करेगा।”  उसके जाते ही उसकी बूढ़ी माँ रसोई की खिड़की की ओर मुँह करते हुए ज़ोर से आवाज़ लगाती है। उसकी पत्नी  बुढ़िया का मंतव्य समझ झुँझला जाती और कहती-

” जगह है क्या उसे कहीं और?”  रसोई में दो-चार बर्तन गिरने की आवाज़ के साथ कुछ शब्द गूँजते अब बुढ़िया का पेट कैसे भरुँगी?


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Wednesday 2 November 2022

वीरानियों के सुर



           चित्तौड़ दुर्ग में विजय स्तंभ के पास घूमते हुए वह रानी पद्मिनी-सी लग रही थी।

शादी के चूड़े को निहारती बलाएँ ले रही थी अपने ख़ुशहाल जीवन की, सूरज की किरणों-से चमकते सुनहरे केश, खिलखिलाता चेहरा, ख़ुशियाँ माप-तौलकर नहीं, मन की बंदिशों को लाँघती दोनों हाथों से लुटाती जा रही थी।

प्यारी-सी स्माइल के साथ उसने रिद्धि की ओर फोन बढ़ाते हुए कहा-

”दीदी!  प्लीज एक पिक…।”

” हाँ!  क्यों नहीं… ज़रूर !” रिद्धि ने कहा।

उसने प्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए कसकर अपने पार्टनर को जकड़ा और कैमरे के सामने प्यारी-सी मुस्कान के साथ मोहक पोज दिया।

” यार शालीनता से … ! फोटोग्राफ़ मम्मी-पापा और दादी को भी भेजने हैं।”

उसके पार्टनर ने कहा।

पार्टनर के शब्दों से वह सहम गई और शालीन लड़की के लिबास में ढलने का प्रयास करने लगी।

अगले ही पल वे दोनों रिद्धि की आँखों से ओझल हो गए।

वहीं मीराँ मंदिर के पास पद्मिनी जौहर-कुंड की वीरानियों ने रिद्धि को जैसे जकड़ लिया हो या कहूँ वह उन्हें भा गई और उन्होंने हाथ पकड़ वहीं पत्थर पर रिद्धि से बैठने का आग्रह किया। वे एक-दूसरे के प्रेम में डूब चुकी थीं। एक ओर मीराँ का विरह अश्रु बनकर लुढ़क रहा था तो दूसरी ओर पद्मिनी का जौहर-कुंड उसे जला रहा था। उन वीरांगनाओं के सतीत्व के तप से रिद्धि मोम की तरह पिघलने लगी, अचानक उसके कानों में एक स्वर कोंधा।

”तुम्हारा ही पल्लू कैसे फिसलता है यार और ये फूहड़ हँसी ?”

सहसा उसके पार्टनर का स्वर रिद्धि के कानों से टकराया परंतु उसकी आँखों ने अनदेखा करना मुनासिब समझा। 

”बचकानी हरकत करते समय निगाहें इधर-उधर दौड़ा लिया करो यार।” उसका पार्टनर सहसा फिर झुँझलाया।

जो चिड़िया फुदक-फुदककर चहचहाती डालियों पर झूला झूल रही थी अब वह लोगों से नज़रें चुराने लगी।

 रिद्धि ने बेचैन निगाहों से उनकी ओर देखा! और देखती ही रह गईं कि एक पद्मिनी मीराँ बनकर घर लौट रही थी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Saturday 1 October 2022

लकीरें


                           " कामवालियों के हाथों में लकीरें नहीं होतीं!” एक ने अपने मेहँदी रचे हाथ दिखाए।

उसने पीछे मुड़कर उसको जाते हुए देखा और फिर बर्तन धोने लगी।

”तुम्हें दुख नहीं होता ?”

धुली कटोरियाँ उठाते हुए दूसरी ने कहा।

"ज़िंदगी की आपा-धापी में बिछड़ गए कहीं सुख-दुख।” पथराई आँखों से कैलेंडर को ताकते हुए,सहसा उसने चुप्पी तोड़ी और कहा-

 ” पेड़ से झड़ते पत्ते सरीखे होते हैं दुःख, सुबह ही ड्योढ़ी तक बुहारकर आई हूँ साँझ ढले फिर मिलेंगे!”

उसाँस के साथ साड़ी से हाथ पोंछते हुए ढलते सूरज की  हल्की रोशनी में अपनी सपाट हथेली पर उसने फिर से लकीरें उगानी चाहीं।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

सीक्रेट फ़ाइल

         प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'लघुकथा डॉट कॉम' में मेरी लघुकथा 'सीक्रेट फ़ाइल' प्रकाशित हुई है। पत्रिका के संपादक-मंड...