”लगता है सैर पर निकले हो?”
कहते हुए, मंदी का चश्मा फिसलकर नाक पर आ गया । मोटी-मोटी आँखों से दूध और ब्रेडवाले को घूरने लगी।
”नहीं कॉलोनी की गलियों में दूध और ब्रेड की महक फैलाने निकले हैं, दिख नहीं रहा तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़े हैं क्या?”
दूध और ब्रेडवाले का स्वर एक साथ गूँजा,तंज़ था आवाज़ में।
”तभी मैं जानू, गोल-गोल क्यों घूम रहे हो!”
तंज़ से अनभिज्ञ, मंदी ने चश्मा नाक पर सटाया,होंठों को पपोलते हुए छड़ी उठाने का प्रयास भी विफल रहा, उठ न सकी फिर वहीं बैठ गई।
” नित नई नीतियों ने निवाला छीन लिया! मरे को और मारने की ठानी है?”
बैंच के पास ही दाना चुगते सरकारी शहरी कबूतरों की गुट-रगूँ मंदी के कानों में पड़ती है।
”हाय! जहाँ देखो वहीं मेरे ही चर्चे, कमर ही तो झुकी है; टूटी तो नहीं ना।
फटेहाल ही सही कुछ कपड़ा तो बचा है तन पर।”
स्वयं के चर्चे पर मुग्ध अपनी बलाएँ लेने लगी। बैंच के इस कॉर्नर से उस कॉर्नर तक खिसकती हुई,मुस्कान फैलाए।
” अख़बार! अख़बार!! अख़बार!!!।”
बंदर ने अपने ही अंदाज़ में आवाज़ लगाई,अख़बार मंदी की ओर बढ़ाया,उसने एक हाथ से छड़ी दूसरे में अख़बार उठाया।
”लॉक डाऊन के दौरान भारी मंदी की मार साथ ही बिलायती बबूल के पत्तों की पूँजी छत्तीस प्रतिशत बढ़ी।”
लो! जामुन के पेड़ पर चमेली का फूल!
अख़बार की ख़बर पढ़ मंदी की आँखों पर अविश्वास छाया।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'