Thursday, 16 January 2020
अंधा बाँटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह के देय
"बुआ टंच तो आज काल पैदा होते ही बच्चे बन जा हैं। मैंने तो फिर भी तीस साल खायीं हैं।थे बताओ दीदा-गोडा ठीक,ब्याज़ का धंधा चालू है कि छोड़ दिया ?"

Sunday, 12 January 2020
चरित्र-हत्या एक खेल !
मैं मेरे की भावना हो रही है बलवती। अपनी हदों को पार करता मानव स्वभाव अब किसी के चरित्र की हत्या करना या करवाना कलिकाल युग के मानव के लिये आम-सी बात बन गयी है बशर्ते करने और करवाने वाले को मिलना चाहिये एवज़ में एक ख़िताब बड़प्पन का वह भी करुणा भाव से छलकता हुआ क्योंकि उसने भी अपने चरित्र को ताक पर रख की है सामने वाले के चरित्र की हत्या।यही विशेषता रही है ख़ास इस दौर के मानव की, मुख पर शालीनता की लालिमा शब्दों में तर्क का तेज़ परन्तु दुर्भाग्य वह मानसिक और शारीरिक रुप से हो चुका है विकृत। स्थिति यह हो चुकी है कि वह बौखला गया है। घटती उम्र बढ़ती महत्त्वाकाँक्षा में तालमेल बिठाना अब उसके हाथ में नहीं रहा। वह अतीत को देखता है वर्तमान को जीता है और भविष्य को संवारता है। प्रति पल अपने से करता है राजनीति, राजनीतिक अपंगता हर हृदय को अपने आग़ोश में लेने लगी है। इतिहास के तथ्य तलाशते-तलाशते वह उन्हीं किरदारों में अपने आप को देखने लगा। उसी स्थान पर उसी दर्ज़े पर अपने आप को रखने लगा। बिन त्याग और बलिदान के एक पल में अमर होने की प्रवृति परिवेश में पनपने लगी है। सूर्य-सी आभा मुखमंडल पर प्रतिष्ठित छवि चाहता है हर हृदय, यही विडंबना तुषार की बूँदों-सी टपक रही है कलिकाल युग में।
ऐसा ही एक हृदय फिर रहा है मारा-मारा नाम कुछ गुनगुन सामने आया है। समाज से बटोरने सहानुभूति या लिये राजनीति की खड़ग कुछ कहना शायद असंभव-सा प्रतीत हो रहा। इस मोहतरमा ने संजीदगी से टपकाए हैं आँख से आँसू मनगड़ंत कहानी को आपबीती का लिबास पहना वह साबित करना चाहती है कि जब वह सात साल की थी तब उसके साथ अन्याय हुआ था। मोहतरमा को आज अठाईस साल के बाद होश आया कि उस के साथ अन्याय हुआ था वह भी उस साहित्यकार के मरणोपरांत बाईस साल बाद। यह कोरी राजनीति या एक मनगढ़ंत कहानी या एक सोची-समझी साज़िश एक साहित्यकार की चरित्र-हत्या करने की।आज एक वामपंथी साहित्यकार होना गुनाह है या सच की ज़ुबां काटी जा रही ,या उसके लेखन को लज्जित करने का षड़्यंत्र कहूँ,साहित्य पर भी वर्ग विशेष का अपना आधिपत्य है । जो भी है एक विश्वविख्यात साहित्यकार के चरित्र की हत्या करना कहाँ तक जाएज़ है। बाबा नागार्जुन एक जन कवि थे जिन्हें आज तथाकथित साहित्यकारों द्वारा अपमानित किया जा रहा और उनका दोगला रबैया सामने आया है और मोहतरमा आज क्या बताना और दिखाना चाह रही हैं। इस तरह साहित्य में पैर पसारती घटिया राजनीति साहित्य को पतन के कग़ार पर खड़ा करती है। वामपंथ का अनुयायी होने के नाम पर इस तरह ज़लील करना कुछ लोगों की साहित्यिक कुंठा मात्र हो सकती है। आज के क़लमकार अपनी क़लम से गुनगुन के लिये इंसाफ़ की गुहार लगाते नज़र आये, उसके लिये जिसने कभी यथार्थ के धरातल पर अपने क़दम ही नहीं रखे।जो हुआ ही नहीं उसे होने की संज्ञा देना एक अपराध को बढ़ावा देना मात्र है। मोहतरमा के अनुसार जब वह सात साल की थी तब शायद वह साहित्यकार बयासी साल के थे अपने ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर वह ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे थे। इस तरह बेबुनियाद शब्दों को ज़िंदगी का सच बताने वालों के ख़िलाफ़ कठोर कारवाही की माँग उठनी चाहिए।
© अनीता सैनी
Labels:
चरित्र हत्या एक खेल (लेख )

Subscribe to:
Posts (Atom)
चॉकलेट
उस दिन घर में सन्नाटा पसरा था, घर की प्रत्येक वस्तु व्यवस्थित परंतु मौन साधे खड़ी थी। घड़ी की टिक-टिक की...
