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Sunday, 19 March 2023

चॉकलेट


                          उस दिन घर में सन्नाटा पसरा था, घर की प्रत्येक वस्तु व्यवस्थित परंतु मौन साधे खड़ी थी। घड़ी की टिक-टिक की आवाज़ खामोशी में शब्द बिखेरने का कार्य कर रही थी और भावों ने चुप्पी साध रखी थी। राधिका ने जैसे ही विम्मी के कमरे में प्रवेश किया वह पेंटिग छोड़ माँ की गोद में लेट गई।

शब्दों से नहीं विम्मी रंगों से कहानी बुनती है। उसका बनाया स्कैच हर बार एक नई कहानी कहता है। इन्हीं ख्यालों में खोई राधिका ने देखा कोने में रखा पेंटिंग का सामान बुदबुदा रहा था कि उनके साथ ढेरों वार्तालाप करने के बाद फिर उन पर सफ़ेद रंग चढ़ाकर भावों को छिपा दिया गया है।

राधिका ने जैसे ही विम्मी के हाथ में उसकी पसंदीदा चॉकलेट रखी गंभीर मुद्रा के साथ वह माँ के आलिंगन में सिमट गई।कुछ समय पश्चात सहज हो चॉकलेट को बैड के पीछे अपने पापा की फोटो के पास रख कर अपनी ही दुनिया में खोने के प्रयास में घुल गई। विम्मी अक्सर ऐसा करती थी। कभी-कभार चॉकलेट दो-तीन दिन तक वहीं रखी रहती। हाँ! रखने का तरीका बदल जाता था जिससे पता चलता समय-समय पर रंगों के साथ-साथ चॉकलेट से भी बातें हुआ करती थीं।

राधिका ने धीरे से विम्मी का सर सहलाते हुए कहा- ”सब ठीक है न बेटा?” विम्मी ने एक दम राधिका को जकड़ लिया। वह फूट-फूटकर रोना चाहती थी परंतु उसने ऐसा नहीं किया उसके दो-चार आँसुओं से राधिका की ममता तड़प उठी।

"क्या हुआ बेटा?" राधिका ने फिर कहा।

 "सभी के पापा चॉकलेट लाते हैं मेरे पापा छुट्टी कब आएँगे?" उस दिन पहली बार राधिका को लगा,  वह कितनी ग़लत थी कि उसकी बेटी कहानी लिखना नहीं बल्कि जीना सीख रही थी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Saturday, 14 January 2023

स्वप्न नहीं! भविष्य था



                       स्वप्न नहीं! भविष्य वर्तमान की आँखों में तैर रहा था और चाँद  दौड़ रहा था।

 ”हाँ! चाँद इधर-उधर दौड़ ही रहा था!! तारे ठहरे हुए थे एक जगह!!!”  स्वयं को सांत्वना देते हुए उसने भावों को कसकर जकड़ा।

धरती का पोर-पोर गहरी निद्रा में था। भूकंप की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। तूफ़ान दसों दिशाओं को चीरता हुआ चीख़ रहा था। दिशाओं की देह से टपक रहा था लहू जिसे वे बार-बार आँचल से  छुपा रही थीं। इंसान की सदियों से जोड़ी ज़मीन, ख़रीदा हुआ आसमान एक गड्ढे में धँसता जा रहा था।

”धँस ही रहा था।हाँ! बार-बार धँस ही तो रहा था।” गहरे विश्वास के साथ उसने शब्दों को दोहराया।

चेतन-अवचेतन के इस खेल में उसे घड़ी की टिक-टिक साफ़ सुनाई दे रही थी।

हवा के स्वर में हाहाकार था, रेत उससे दामन छुड़ा रही थी। वृक्ष एक कोने में चुपचाप पशु-पक्षियों को गोद में लिए खड़े थे।उनकी पत्त्तियाँ समय से पहले झड़ चुकी थीं। सहसा स्वप्न के इस दृश्य से विचलित मन की पलकें उठीं, अब उसने देखा सामने खिड़की से चाँद झाँक रहा था।

”हाँ! चाँद झाँक ही रहा था!! न कि दौड़ रहा था।” उसने फिर विश्वास की गहरी सांस भरी।

 फूल,फल और पत्तों रहित वृक्ष एक दम नग्न अवस्था में  उसे घूर रहे थे वैसे ही अपलक घूर रही थी पड़ोसी देश की सीमा। देखते ही देखते सीमा के सींग निकल आए थे। सींगों के बढ़ते भार से वह चीख रही थी। वहाँ स्त्री-पुरुष चार पैर वाले प्राणी बन चुके थे। वे हवा में अपनी-अपनी हदें गढ़ रहे थे। बच्चे भाषा भूल गूँगे-बहरे हो चुके थे। समय अब भी घटित घटनाओं का जाएज़ा लेने में व्यस्त था। मैं मेरे की भावना खूँटे से आत्ममुग्धता की प्रथा को बाँधने घसीट रही थी।

उसने ख़ुद से कहा- ”उठो! तुम उठ क्यों नहीं रहे हो? देखो! जीवन डूब रहा है।”

अर्द्धचेतना में झूलती उसकी चेतना उसे और गहरे में डुबो रही थी।

वह चिल्लाया! बहुत ज़ोर से चिल्लाया परंतु उससे चिल्लाया नहीं गया। वह गूँगा हो चुका था ! ”हाँ! गूँगा ही हो चुका था!! ” उसने ने देखा! उसके मुँह में भी अब जीभ नहीं थी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

चॉकलेट

                          उस दिन घर में सन्नाटा पसरा था, घर की प्रत्येक वस्तु व्यवस्थित परंतु मौन साधे खड़ी थी। घड़ी की टिक-टिक की...