" कामवालियों के हाथों में लकीरें नहीं होतीं!” मेहँदी रचे हाथ दिखाते हुए वह उसकी हथेली देखते हुए कहती है।
उसने पीछे मुड़कर उसको जाते हुए देखा और फिर बर्तन धोने लगी।
”तुम्हें दुख नहीं होता ?”
धुली कटोरियाँ उठाते हुए दूसरी ने कहा।
"ज़िंदगी की आपा-धापी में बिछड़ गए सुख-दुख।” पथराई आँखों से कैलेंडर को ताकते हुए वह कहीं खो जाती है।सहसा फिर चुप्पी तोड़ते हुए कहती है -
”पत्ते सरीखे होते हैं दुःख, अभी ड्योढ़ी तक बुहारकर आई हूँ !”
उसाँस के साथ साड़ी से हाथ पोंछते हुए ढलते सूरज की हल्की रोशनी में अपनी सपाट हथेली पर उसने फिर से लकीरें उगानी चाहीं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'