Sunday, 19 July 2020
लाचारी

Wednesday, 8 July 2020
अनुत्तरित प्रश्न
"बड़ी बहू हल्दी का थाल कहाँ है ?"
सुमित्रा चाची चिल्लाती हुई आती है,
हल्दी के रंग में डूबी साड़ी के पल्लू को ठीक करते हुए एक नज़र अपने गहनों पर डालती हुई कहती है।
"ओह ! मति मारी गई मेरी, यहीं तो रखा है आँखों के सामने।"
पैर की अँगुलियों में अटके बिछुए से साड़ी को खींचती हुई क़दम तेज़ी से बढ़ाती है।
"सुमित्रा! बेटी का ब्याह है। बहू घर नहीं आ रही,यों अपना आपा नहीं खोते।"
दादी ने मुँह बनाते हुए कहा
बूढ़ी दादी पोती के ब्याह में ऐंठी हुई बैठी है कि कोई उससे कुछ क्यों नहीं पूछता। दादी अपनी ऐंठन खोलते हुए मुँह बनाती है। परंतु सुमित्रा चाची अनसुना करते हुए वहाँ से निकल जाती है। हल्दी की रस्म शुरु होती है। हल्दी के रंग में रंगी औरतें खिलखिलाते हुए रस्म में चार चाँद लगातीं हैं। दादी अपने ही गुमान में बैठी देखती है यह सब।
" दीदे फाड़-फाड़कर देखती ही रहोगी क्या ? वहाँ चौखट पर बैठ जाओ। सूबेदारनी अंदर ही घुसी आ रही है। विधवा की छाँव शुभ कार्य में शोभा देती है क्या ?"
सुमित्रा चाची दादी पर एकदम झुँझलाती है।
"सुमित्रा !"
गोमती भाभी की ज़बान लड़खड़ा गई।
न वह अंदर आती है और न ही अपने क़दम पीछे खींचती है। अपमान के ज़हर का घूँट वहीं खड़े-खड़े ही पी गई। क्षण भर अपने आपको संभालते हुए कहती है -
" बड़ी बहू वो शगुन तो लाना ही भूल गई मैं ...आती हूँ कुछ देर में दोबारा।"
गोमती भाभी दर्दभरी मुस्कान बड़ी बहू को थमा जाती है फिर आने के वादे के साथ और छोड़ जाती है एक अनुत्तरित प्रश्न ...
©अनीता सैनी 'दीप्ति'
Labels:
अनुत्तरित प्रश्न,
लघुकथा

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