" माँ! बहुत चुभती हैं मोजड़ी।”
रुआँसा चेहरा लिए, पारुल ने अपना दिल माँ की गोद में रखा। इसी उम्मीद में कि माँ उसे सहलाकर सँभाल लेगी।
" नई मोजड़ी, सभी को अखरती हैं! धीरे-धीरे इनकी ऐसी आदत लगती है कि कोई और जँचती ही नहीं ।"
माँ झूठ-मूठ की हँसी होठों पर टाँकते हुए बेवजह मेहंदी के घोल को और घोंटती जाती है।
"इनसे से पैरों में पत्थर भी धँसते हैं।"
पारुल अपने ही पैरों की ओर एक टक देखती है। मासूम मन छाले देख सहम जाता है।
शून्य भाव में डूबी माँ दर्द, पीड़ा; प्रेम इन शब्दों के अहसास से ऊपर उठ चुकी है।बस एक शब्द है गृहस्थी जिसे वह खींचती रहती है। पारुल के पैरों में पड़े छालों पर मेहंदी का लेप लगाते हुए स्वयं के जीवन को दोहराती कि कैसे जोड़े रखते हैं रिश्तों की डोर? माँ परिवार शब्द से बाहर नहीं निकली, इसी शब्द में डूब चुकी है। कभी-कभी तो माँ के हाथों से छूट चेहरे से चिपक जाती है थकान, परंतु माँ है कि बोलती नहीं है। बस एक ही शब्द हाँकती है कुटुंब । यह शब्द पारुल के लिए नया है, तभी चुभती हैं उससे मोजड़ी।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'