Sunday, 17 May 2020
तुम्हारी फुलिया
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लघुकथा

Tuesday, 12 May 2020
कहो न सब ठीक हो जाएगा !
मौसम अक्सर साँझ ढले ख़राब हो ही जाता है।
आँधी के साथ कुछ बूँदा-बाँदी होना स्वभाविक ही है। सामने पार्क में देखने से लग रहा था जैसे पेड़ टूटकर अभी गिरने ही वाले हैं।
तेज़ तूफ़ान के साथ बीच-बीच में किसी के चीख़ने-चिल्लाने की आवाज़ कानों में गूँज रही थी।
धड़कनें बढ़ने लगीं कि आख़िर हुआ क्या? क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद उस दिशा की ओर बढ़ने लगे।
"मैंने थाली भी बजायी थी और दीपक भी जलाये थे।"
सुमित्रा आंटी मातम में डूबी यही रट लगाए जा रहीं थीं।
पड़ोस की कुछ औरतें उन्हें ढाढ़स बँधा रही थीं।
"सुमित्रा हिम्मत रख दुधमुँहे बच्चे हैं बहू के उनका तो विचार कर।"
पास ही बैठी एक औरत ने सुमित्रा काकी को कँधे का सहारा देते हुए कहा।
"कैसे सब्र करुँ? ये पिछले दो साल से घर बैठे हैं वह दो महीने घर नहीं बैठ पाया। घबरा क्यों गया माँ-बाप बोझ लगे उसे?"
सुमित्रा काकी के पति के दोनों पैर किसी हादसे में कट गए थे अब वह एक ही जगह बैठे रहतें हैं।
परंतु कौन नहीं टिक पाया, किसे बोझ लगे; यह नहीं समझ पायी।
"भाभी उन्होंने आत्महत्या कर ली! मैं क्या करु? कैसे लाऊँ उन्हें?"
पायल ने एकदम से पूजा को जकड़ लिया।
वह उसके सीने से लग सुबक-सुबक कर रोने लगी।
"एक बार कहो न भाभी सब ठीक हो जाएगा।
तुम्हारे शब्दों से हिम्मत मिलती है; बोलो न भाभी।"
पायल पूजा से बार-बार यही आग्रह कर रही थी।
गला रुँध गया,शब्द लड़खड़ा गए। बस आँखें बरस रहीं थीं।
कैसे कहूँ?
सब ठीक हो जाएगा!
©अनीता सैनी 'दीप्ति'
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Tuesday, 5 May 2020
वृंदा
रात के अंतिम पहर में धुँधले पड़ते तारों में तलाशती है अपनों के चेहरे। ऐसा लगा जैसे एक-एक कर साथ छोड़ रहे हैं उसका और वह ख़ामोशी से खड़ी सब देख रही है। एक आवाज़ उसे विचलित कर रही है।
"हक नहीं तुम्हें कुछ भी बोलने का। ज्ञान के भंडारणकर्ता हैं न,समझ उड़ेलने को। तुम क्यों आपे से बाहर हो रही हो। तुम्हें बोलने की आवश्यकता नहीं है।"
बुद्धि ने वृंदा को समझाया और बड़े स्नेह से दुलारा।
"क्यों न बोलें हम,तानाशाही क्यों सहें?"
मन ने हड़बड़ाते हुए कहा।
"क्योंकि वे समझ पर लीपा-पोतीकर रहे हैं जिससे काफ़ी लोगों को सुकून की अनुभूति हो रही है।"
बुद्धि ने अपनी गहराई से कुछ बीनते हुए कहा।
"बाक़ी लोगों का क्या वे क्या गणना का हिस्सा नहीं है।"
"क्या यह सही समय था? तीनों सेनाओं को उलझाना ठीक था।"
गला रुँध गया और मन की आँखें नम हो गई।
"वे सकारात्मकता दर्शाना चाहते हैं।"
बुद्धि ने मन को हिम्मत बँधाई।
"फिर डॉक्टर और पुलिस की सुरक्षा के लिए ज़रुरी सामान उपलब्ध क्यों नहीं कराया गया। वे मर रहे हैं। बेवजह फूल बरसाकर क्या दिखा रहे हैं? "
मन एक कोने में बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा जैसे उसने किसी अपने को खोया है।
"किससे अनुमति हासिल की कि इस तरह सभा बुलाकर मातम मना रहे हो?"
अंदर से आवाज़ ने आवाज़ दी मन और बुद्धि दोनों सहम गए।
"ये वाकचातुर्य नासमझी को समझदारी का लिबास पहना रहे हैं।"
मन ने धीमे स्वर में अपना मंतव्य रखा।
"क्या करोगे तुम? "
"ज़्यादा ज्ञान मत बघारो।"
आवाज़ ने आक्रोशित स्वर में उसांस के साथ कहा।
"माफ़ी-माईबाप! अब कभी मन अपने शब्द ज़ूबाँ पर नहीं लाएगा। इसने पाँच सपूत खोए हैं। मनः स्थति समझो इसकी।"
बुद्धि ने मन की तरफ़ से आवाज़ से माफ़ी माँगी कभी आवाज़ न निकालने के वादे के साथ।
वृंदा की आँखें नम हो गई, उसने देखा!
और पाँच तारे आसमान में लुप्त हो गए।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Monday, 4 May 2020
अनपढ़ औरतें
आज सुबह से ही मौसम बिगड़ रहा था। गीता गांव के हाल-चाल फोन पर ले रही कि मौसम की मार से पहले खलिहान में पड़ा अनाज घर तक सुरक्षित पहुँचा या नहीं।
पुनीत अख़बार पढ़ रहा था, सासु माँ अंदर रुम में आराम कर रही थी।
"वह अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए पत्थर उबाल रही थी।"
पुनीत ने विस्फारित नेत्रों से मम्मी से कहा और फिर दूसरा समाचार पढ़ने लगा।
"अनपढ़ होगी!"
गीता की सास ने कमरे के अंदर से आवाज़ दी।
"मॉम कहती है माँ कभी अनपढ़ नहीं होती।"
पुनीत ने माँ शब्द को फ़ील करते हुए गीता का समर्थन किया।
" कीनिया की एक महिला जिसके आठ बच्चे थे वह विधवा थी। लोगों के कपड़े धोकर अपने बच्चों का पेट भरती थी। हाल ही में कोरोना की वजह से काम पर नहीं जा सकती थी। खाने को घर पर कुछ नहीं था, बच्चों को बहलाने के लिए वह पत्थर उबालने लगी। बच्चों को कुछ संतोष होगा जिसके इंतज़ार में वे सो जाएँगे।"
पुनीत ने अपनी बाल-बुद्धि से यह विचार विचलित मन से अपनी दादी माँ को सुनाया।
"और पता है, उसकी पड़ोसन ने उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया जिससे कि काफ़ी लोगों ने उनकी मदद भी की।"
पुनीत अपनी दादी माँ को बार-बार समझा रहा था।
"मॉम आप क्या कहते हो?"
पुनीत ने फिर प्रश्न किया।
"उसकी पीड़ा को पिरो सकूँ वे शब्द कहाँ से लाऊँ? "
गीता ने पुनीत को दूध का गिलास थमाते हुए कहा।
"ये अनपढ़ औरतें भी न कभी पत्थर तो कभी नमक से पेट भर देती हैं अपने बच्चों का।"
गीता की सास पास ही सोफ़े पर बैठते हुए, ऐसी ही एक घटना से इस घटना को जोड़कर समझाती हुई कहती है।
"पता है मुझे कोई अनपढ़ ही होगी।"
©अनीता सैनी
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