क़ीमत उसकी ज़िंदगी की उसके हाथ में थमाई गई थी जिसे वह सहेज न सकी या उसके बच्चों की जो 'पापा' शब्द गँवाने पर मिली थी उन्हें। जब भी मिलती हूँ उससे समझ नहीं पाती हूँ क़ीमत किसकी थी और किसने चुकाई। यह जो हर रोज़ चुकाती है या वह जो सरकार ने हाथ में थमाई थी उसके पति की।
काफ़ी बार मिल चुकी थी उससे, आज कलेक्ट्री के बाहर खड़ी थी वह बरसात में अपने आप को समेटे हुए। सूखा चेहरा,पुकारती आँखें हर सांस में घुटन थी उसके। हाथ में प्लास्टिक का छोटो-सा बैग था।ऑटो-ऑटो कह पुकार रही थी। गाड़ी के हल्के ब्रेक लगाने से उसमें हिम्मत आई अकेली होने के वास्ते के साथ ही अपने गंतव्य पर छोड़ने का आग्रह किया। एकाधिकार के साथ बग़लवाली सीट पर बैठ गई।
"आप स्कूटी क्यों नहीं खरीदती हैं? घर के छोटे-मोटे काम रोज़ निकलते रहते हैं।"
रश्मि ने स्नेह के साथ संगीता से कहा।
संगीता ख़ामोश थी, विनम्रभाव से रश्मि को देखती रही; न जाने क्यों शब्दों का अभाव था उसके पास।
"ख़ुद का आत्मविश्वास भी बना रहता है,हम कम थोड़ी हैं किसी से; लाचारी क्यों जताएँ आँखों से ?"
रश्मि ने संगीता को सीट बैल्ट थमाया और मुस्कुराते हुए कहा।
संगीता ने कुछ नहीं कहा, हल्की मुस्कान के साथ दुपट्टे से चेहरा पोंछने लगी। किसी उलझन में थी जो आँखें बता रहीं थीं।
"आप यहाँ काम करने लगीं हैं?"
रश्मि ने फिर एक प्रश्न संगीता से किया।
"नहीं घर के काग़ज़ बनवाने थे परंतु आज भी बिल्डर नहीं आया।"
संगीता ने बनावटी मुस्कुराहट बिखेरने का प्रयास किया।
"अरे वाह! फिर तो बधाई हो स्वयं के घर की बात ही निराली है।"
रश्मि संगीता की ख़ुशी का हिस्सा बनते हुए कहती है।
"अब ख़ुशी और ग़म में फ़र्क़ नज़र नहीं आता,ज़रुरत-सी लगती है।"
अचानक संगीता की आँखें भर आईं।
"हिम्मत रखो, मैं समझ सकती हूँ।
रश्मि एक नज़र संगीता पर डालती है। बहुत कुछ है उसके मन में जो वह किसी से कहना चाहती है परंतु कहे किससे, सुनने वाला कोई नहीं। अचानक वह फूट पड़ती है ।
"किस अपराध की सज़ा भुगत रही हूँ मैं? उससे शादी की उसकी या उसके पैसे नहीं मिलने पर घर से निकाल दी गई उसकी? पिछले दो दिन से चक्कर लगा रही हूँ, एक घंटे में आने की कहते हैं और अब देखो सुबह से शाम हो गई।जूतियाँ पहननेवाला ही जानता है कि वे पांव में कहाँ काटतीं हैं।"
जाके पांव न फटी बिंवाई सो का जाने पीर पराई कहते हुए शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया। अभी भी गला रुँधा हुआ था उसका। ख़ुद से परेशान साथ ही एक साथी का अभाव कहीं न कहीं उसे खटक रहा था। खिड़की की तरफ़ मुँहकर बच्चों को फोन करने लगी। न चाहते हुए भी आज वह बिखर गई, अगले ही पल ख़ुद को समेटने में व्यस्त एक आवरण गढ़ने लगी।
काफ़ी देर तक इसी ख़ामोशी के साथ सफ़र अपने सफ़र की ओर बढ़ने लगा।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 28-08-2020) को "बाँच ली मैंने व्यथा की बिन लिखी पाती नयन में !"
(चर्चा अंक-3807) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
…
"मीना भारद्वाज"
सादर आभार आदरणीय मीना दीदी चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteअति सुंदर आदरणीया 🙏💐💐
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया सर।
Deleteसादर
मार्मिक लघुकथा जो अकेली औरत के संघर्ष की प्रभावशाली झलक प्रस्तुत करती है। समाज के दोहरे मानदंडों का प्रभाव अब समाज के हरेक क्षेत्र में उभर रहा है। मरती संवेदनाओं के दौर में सहयोग और आत्मीयता का व्यावहारिक स्पर्श व्यक्ति के अंतरमन को उद्वेलित कर देता है।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
मानवीय संवेदनाओं की कहानी बहुत बढ़िया अनीता जी
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
अनीता जी सुंदर भावों को प्रस्तुत किया आपने अपनी कहानी के माध्यम से
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
बेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय दीदी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
सार्थक और सुन्दर और भावप्रवण रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
सुन्दर, भावभीनी लघुकथा अनीता जी!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
पति की असमय मृत्यु पर अपने बच्चों के खातिर पूरी सामर्थ्य
ReplyDeleteजुटाकर जीने की जद्दोजहद में लगी एक औरत का जीना तब और भी दुस्वार हो जाता है जब उसे उसके अपनो से और इस समाज से संवेदनहीनता और बेरूखी का सामना करना पड़ता है । समाज की ऐसी संवेदनहीनता पर बहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा लिखी है आपने....
साधुवाद....।
सादर आभार आदरणीय सुधा दी आपकी प्रतिक्रिया मेरा संबल है।स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसादर
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 1 सितंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सादर आभार आदरणीय सर पाँच लिंकों पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
वाह!प्रिय अनीता ,बहुत हृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय शुभा दीदी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
एक अकेली औरत की अंतर व्यथा,समाज मे स्वयं को स्थापित कर साथ ही बच्चों को हक दिलाना उनके भविष्य के लिए झूझारु हो लड़ते रहना, थक कर बिखर जाना और फिर स्वयं को समेटना सजहेजना,एक लघुकथा में इतना सब संजो लेना अद्भुत क्षमता।
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर।
भावों और संवेदनाओं से भरपूर लघुकथा।
तहे दिल से आभार प्रिय कुसुम दीदी आपकी प्रतिक्रिया मेरा संबल है।स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसादर
बेहद मर्मस्पर्शी.
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय जेन्नी दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसादर
शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया। अभी भी गला रुँधा हुआ था उसका। ख़ुद से परेशान साथ ही एक साथी का अभाव कहीं न कहीं उसे खटक रहा था। खिड़की की तरफ़ मुँहकर बच्चों को फोन करने लगी। न चाहते हुए भी आज वह बिखर गई, अगले ही पल ख़ुद को समेटने में व्यस्त एक आवरण गढ़ने लगी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर , सरस प्रस्तुतिकरण |
बहुत बहुत शुक्रिया सर आपकी प्रतिक्रिया मिली सृजन सार्थक हुआ।
Deleteसादर