जब से सुगणी गाँव से शहर आई थी। घर की दहलीज पर खड़ी रहती। आते-जाते लोगों को देखती और देखती ही रह जाती।उसे भी वैसे ही काजल, बिंदी और चूड़ी चाहिए होती जैसी उसकी सखी सहेलियों के पास होती।
उसकी सहेली ने बताया इसे देखना नहीं आता फिर झुँझलाकर उसी ने कहा-”अरे! दिखता ही नहीं है इसे।”
साँची ने सुगणी से पूछा तब उसने कहा-
"सब कहते हैं मेरी आँखें नहीं हैं, मेरी आँखों को जो जँचता है वह मेरे आदमी को नहीं जँचता।” कहते हुए वह अपलक कोरे आसमान को घूरने लगी।बड़ी-सी बिंदी, उससे भी बड़ी नथनी और उससे भी बड़ी-बड़ी आँखें। उन आँखों में रमे काजल पर ठहरी लालासा की दो बूँदें, जिसे उसकी आँखें बड़ी चतुराई से घोलकर पी लिया करती थी।
"मुझे देखने ही कब दिया? पहले मेरी माँ! फिर इसकी माँ!! अब यह खुद!!!" न चाहते हुए भी वह भोर-सी बिखर गई, रात की चादर में नजरिया ढूँढ़ती।
”कुछ समय पहले तक मेरे पास भी आँखें नहीं थीं, लोग दिखाते मैं भी वही देख लेती।" साँची ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
" सच कह रही हैं आप! मेरा उपहास तो नहीं उड़ा रही न?.” वह हल्की-सी हँसी के साथ कुछ शरमाई और फिर खुद में सिमटकर रह गई।
"नहीं सच! कसम से!!” साँची ने विश्वास के साथ कहा।
"फिर!” वह धीरे से बोली।
" फिर क्या? फिर मेरे चेतना के अँखुए उग आए उन्हें महसूस किया। कुछ समय पश्चात धीरे-धीरे मुझे दिखने लगा।” साँची ने उसके विश्वास को और गहरे विश्वास के रंग में रंगते हुए कहा और उसने पैर होले से चौखट के बाहर रखा।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
एक स्त्री की मनोदशा को दर्शाती , सोचने पर मजबूर करती लघुकथा ।
ReplyDeleteमुझे देखने ही कब दिया? पहले मेरी माँ! फिर इसकी माँ!! अब यह खुद!!!"
ReplyDeleteआँखें होकर भगवान अंध सी जिंदगी ।
मेरी आँखों को जो जँचता है वह मेरे आदमी को नहीं जँचता।”
बस आदमी को जँचना चाहिए
यही तो विडंबना है ।