Sunday 10 July 2022

विश्वास के चार फूल


                 ”पिता का हाथ छूटने पर भाई ने कलाई छोड़ दी और पति का साथ छूटने पर बेटे ने…।” कहते हुए बालों को सहलाती सावित्री बुआ की उँगलियाँ सर पर कथा लिखने लगी थी। अर्द्ध-विराम तो कहीं पूर्ण-विराम और कहीं प्प्रश्न-चिह्न पर ठहर जातीं। बुआ के विश्वास का सेतु टूटने पर शब्द सांसों के भँवर में डूबते परंतु उनमें संवेदना हिलकोरे मारती रही थी।

बाल और न उलझें इस पर राधिका ने एक नज़र सावित्री बुआ पर डालते हुए कहा-

”बाल उलझते हैं बुआ!”

" क्या करती हो दिनभर,बाल सूखे हाथ-पैर सूखे; कब सीखेगी अपना ख़याल रखना?" कहते हुए झुँझलाहट ने शब्दों के सारे प्रवाह तोड़ दिए, अब सावित्री बुआ के भाव शब्दों में उतर पहेलियाँ गढ़ने में व्यस्त हो गए।

” समर्पण दोष नहीं, आपका स्वभाव ही ममतामयी है।”

राधिका ने पलटकर बुआ के घुटनों पर ठुड्डी टिकाते हुए कहा।

"और उनका क्या ?  उनका हृदय करुणामय  नहीं…?”

माथे से टपकती पसीने की बूंदो में समाहित कई प्रश्न उत्तर की तलाश में भटक रहे थे राधिका को लगा यह कथा नहीं उपन्यास के बिछड़े किरदारों की पीड़ा थी जो उँगलियों के सहारे सर में डग भर रही थी।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

Sunday 3 July 2022

वॉलेट


         " व्यवस्था से अपरिचित हो? परिवर्तन का चक्का चाक नहीं है कि चाहे जब घुमा दो!” कहते हुए- रुग्ण मनोवृत्ति द्वेष के अंगारों पर लेट गई।

  बड़े तबके के मॉल हो या छोटी-बड़ी दुकानें दरवाज़े के बाहर चप्पलें व्यवस्थित करने का ज़िम्मा इसी मनोवृति का है। भेद-भाव भरी निगाहों से एक-एक चप्पल का गहराई से अवलोकन करना फिर दिन व दिनांक का टोकन नाम सहित फला-फला व्यक्ति विशेष के हाथों में थमाना।

"ठीक ! तुम कुछ दिनों बाद आना।” कहते हुए, रुग्ण मनोवृति वहाँ से चली गई।

 विभा को मिले टोकन पर दिन व दिनांक निर्धारित नहीं है उसने अक्ल के घोड़े दौड़ाए परंतु वह समय से पिछड़ चुकी है।

विभा के साथ उम्मीद में हाथ बाँधे खड़ी चार आँखों ने ,  एक ही वाक्य दोहराया।

”एक बार और बात करके देखो, बस आख़िरी बार; फिर घर के लिए निकलते हैं।”

उन आँखें ने हृदय से फिसलते सपनों को सँभाला, फिर अगले ही पल तितर-बितर बिखरी लालसाओं को समेटने में व्यस्त हो गई।

अंततः घूरने लगीं विभा के हाथों में जकड़े सिफ़ारिश के छोटे से वॉलेट को जिसका उपयोग उनके लिए निषेध था।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'