अक्सर मौसम के साथ साझा समझौता किया जाता है। दिसंबर से फ़रवरी माह के बीच स्वतः ही आग लग जाती है या कहें लगा दी जाती है। इस बार की आग ने एक बिलियन पशु-पक्षियों की ज़िंदगी निगल ली। अठारह बिलियन हैक्टर के पेड़ कोयले में तब्दील हो गये । उनकी जलन असहनीय थी उनकी तड़प शब्दों से परे अपना मर्म तलाशते हुए। प्रत्येक जीवात्मा से प्रश्न करते हैं।
वहीं आग की लपटों से घिरे कुछ वृक्ष अपनी आग भुझाने का आग्रह करते हैं।उनकी छाँव में पल रहे जीव-जंतुओं की दुहायी देते हैं। अपने आप को फलों से लदे होने का कारण बताते हैं । प्राणवायु का वास्ता देते है परंतु सब विफल रहता है। तभी वृद्ध वृक्ष कराहता हुआ आवाज़ लगता है-
"अरे भाई! कुछ बूँदें पानी की डाल दो देह पर।"
धधकती आग में कराहते हुए कुछ वृद्ध वृक्षों की आवाज़ थी यह।
"थोड़ी प्रतीक्षा और करें।आदेश आता ही होगा।"
यह भालू की आवाज़ थी। जो हाथों में पानी का पाइप लिये खड़ा था।
वह वृक्षों की आवाज़ अनसुनी कर प्रतीक्षा कर रहा था।जंगल के राजा शेर की जिसके आदेश पर आगे की कारवाही शुरु होनी थी।
"मेरी छाँव में पल रहे इन नन्हे जीव-जंतुओं पर तो रहम करो।"
जलन से कराह रहा वृद्ध बरगद अपनी असहनीय पीड़ा से बार-बार आग्रह को उतारु था।
"बस कुछ प्रतीक्षा और करो महामहिम राउंड पर निकले हैं आते ही होंगे।"
हाथी ने अपनी सूंड में कुछ पानी भरा और पेड़ों पर डालना शुरु किया जिससे कुछ छोटे पौधो को राहत मिली जो कि कुछ हद तक जल चुके थे।
" अभी क्यों...कोयले पर साझा समझौता हुआ था न अडानी।"
यह लोमड़ी की आवाज़ थी जो हाथी को कुछ संमरण करवा रही थी।
हाथी अपने झुंड के साथ वहीं बैठा-बैठा अपनी लाचारी पर आँसू बहाने लगा।
जंगल की आग अब अपना रुख और प्रचंड कर चुकी थी। पेड़ों के साथ-साथ अनगिनत पशु-पक्षियों के चिलाने की आवाज आ रही थी। जिनके पास शायद जंगल से बाहर आने की सुचना नहीं पहुँच पायी या हो सकता है। आग समय से पहले लगी या लगायी गई हो।
धुएँ के बढ़ते प्रकोप से कुछ सभ्यता के रखवालों को अब सृष्टि विनाश की आशंका हुयी। उनकी प्रियशी की आँखों में जलन और किसी का दम धुटने लगा।
"आँखें जल रहीं हैं, दम घूट रहा है; कुछ करो "यह किसी प्रतिष्ठित या कहें प्रभावी पशु की आवाज थी।
धुँआ बहुत था अब साँस लेना भी दूभर हो गया।आदेश मिला इसे शहर से बाहर धकेलो। हवा के तेज़ बहाव से धुँए का रुख मोड़ा गया।
धीरे-धीरे जंगल की आग की तरह यह बात फैल गयी कि महामहिम विदेश दौरे पर गये है।
जंगल के काफ़ी पशु-पक्षी शेर की इस वाहियात हरकत से नाराज़ थे परंतु उन जानवरों को खाना पहुँचाया जा रहा था जोकि जंगल जलने की वजह से भोजन को मोहताज थे।
"दादा मैं आम का वृक्ष हूँ और आमों से लदा हूँ,मुझे क्यों जलाया जा रहा।"
आम का वृक्ष अपनी सार्थकता दर्शाते हुए लाचारी से देखता।
"यहाँ किसकी सार्थकता नहीं है सभी अहम हैं अपने आप में फिर भी जल रहे हैं कुछ समय के हाथों कुछ सोच के हाथों कुछ विचारों के अधीन।"
बरगद आम के आसूँ पोंछते हुए कहता है।
"आज इन्हें हमारी क़द्र नहीं है। ये अपना ही भविष्य जला रहे हैं। हमारी सिसकियाँ विनाश को बुलावा हैं। "
कुछ वृक्ष आग की जलन से आपा खो रहे थे।
जिंदा वृक्षों की देह से निकलती चिंगारी आसमान को छू रही थी। सभी वृक्षों को अब वर्षा का ही सहारा था।
कुछ दिनों बाद बहुत तेज वर्षा हुई। जंगल की आग स्वतः ही बुझ गयी। अब शेर विदेश यात्रा से लौट आया। जंगल के जिव-जंतु उससे बहुत नाराज़ थे। ऐसा भी क्या राजा जो दुःख-तकलीफ़ में अपनी प्रजा का साथ छोड़ गया। किसी ने भी उससे बात नहीं की तब उसने सभा में कोयला उठाया और कहा-
"देखो यह कितना उपयोगी है इससे हमारी बहुत प्रगति होगी। यह वृक्ष ज़िंदा लाख के और जले सवा लाख के।"
शेर का गुरुर अब सातवे आसमान पर था। कुछ ने समर्थन किया तो कुछ वहाँ से चले गये।
शेर का गुरुर अब सातवे आसमान पर था। कुछ ने समर्थन किया तो कुछ वहाँ से चले गये।
समय बीतता गया एक दिन धुँए का वह बवंडर पृथ्वी के चारों तरफ चक्र पूर्ण कर फिर उसी शहर में पहुँच गया।
महामहिम के आदेश पर सभी वृक्षों से आग्रह किया गया कि वह शहर को प्रदूषणरहित करें परंतु अब वृक्ष न के बराबर बचे थे पैसे के लगे ढेर सोने की आभा से चमकती वह सभ्यता धुएँ से अब काली पड़ चुकी थी।
©अनीता सैनी
बच्चों को कहानी सुनाते देखा था. आज सार्थक बाल लघुकथा जन जन को प्रकृति का सुंदर संदेश देते कुछ तथ्यों के साथ लिखी... वाह ! बेहतरीन बस बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया 🙏
Deleteउपयोगी जानकारी के साथ सुन्दर आलेख
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (13-03-2020) को भाईचारा (चर्चा अंक - 3639) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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आँचल पाण्डेय
बहुत बहुत शुक्रिया आपका
Delete
ReplyDelete"यहाँ किसकी सार्थकता नहीं है सभी अहम हैं अपने आप में फिर भी जल रहे हैं कुछ समय के हाथों कुछ सोच के हाथों कुछ विचारों के अधीन।"
हाँ ,इसी अधीनता में आखें बुँदे ,कान बंद किए ,मुँह पर ताले लगाए बैठे हैं हम और कर रहे हैं विनाश की प्रतीक्षा
" महामहिम के आदेश पर सभी वृक्षों से आग्रह किया गया कि वह शहर को प्रदूषणरहित करें परंतु अब वृक्ष न के बराबर बचे थे पैसे के लगे ढेर सोने की आभा से चमकती वह सभ्यता धुएँ से अब काली पड़ चुकी थी। "
और एक दिन विनाश दरवाजे पर खड़ा हो गया और अब उससे भागने का कोई रास्ता नहीं।
प्रिय अनीता तुम्हारी इन दो पंक्तियों ने अंतरात्मा को झकझोर दिया ,निशब्द हूँ मैं ,प्रकृति की पीड़ा का मार्मिक चित्रण ,सादर स्नेह तुम्हे
सादर आभार आदरणीय दीदी सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
Deleteसादर
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 13 मार्च 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सादर आभार आदरणीय सर पाँच लिंकों पर मेरी लघुकथा को स्थान देने हेतु.
Deleteसादर