Saturday, 21 December 2019

नागरिकता संशोधन क़ानून


          
                   
नागरिकता संशोधन क़ानून संसद से पास क्या हुआ. देशभर में इसका विरोध किया जाने लगा विरोध की वजह इस क़ानून में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक रूप से प्रताड़ित हो रहे अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान है. इन देशों से आये ऐसे अल्पसंख्यक शरणार्थी जो दिसंबर 2014 तक भारत में शरण के लिये आये हैं उन्हें भारत का नागरिक बना दिया जाय.इसमें वहाँ के अल्पसंख्यक हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शामिल हैं. प्रावधान में इस्लाम का ज़िक्र न  करने पर भारत में विरोध के स्वर उभर आये हैं. विरोध केवल मुस्लिम नहीं कर रहे हैं बल्कि इनके साथ धर्मनिरपेक्ष विचार के लोग भी शामिल हैं. 
लोकतान्त्रिक देश में सरकार की नीतियों और पक्षपाती क़ानून का विरोध करना जनता का अधिकार है लेकिन यह हिंसक हो जाय तो इसकी निंदा भी की जानी चाहिये . क़ानून अपने हाथ में लेना, उसकी अवहेलना करना, राष्ट्रीय सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना, सुरक्षा बलों पर हमला करना कैसे जाएज़ ठहराया जा सकता है? 
चूंकि भारत सरकार ने घोषणा की है कि इस क़ानून के बाद राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी क़ानून लाया जायेगा. लोगों की आशंकाओं का सरकार ने जवाब दिया है फिर भी लोग संतुष्ट नहीं हैं और सीएए क़ानून को सरकार से लागू न करने की मांग कर रहे हैं आख़िर क्यों ? आपत्ति कहाँ है ?अगर कानून देश हित में है तो क्या हमें अपनी सरकार का साथ नहीं देना चाहिए।सरकारें अपने बोट बैंक के चलते ऐसे क़दम उठती भी बहुत कम है. क्या हमें अपने परिवारों की रक्षा के लिये कोई भी क़दम नहीं उठाना चाहिये. हमें जागरुक होना होगा राजनेता उस मैगी के ऐड की तरह है कभी कहेंगे यह देश हित में नहीं है और दूसरे ही पल कहेंगे इसे लागु होना चाहिये. अब समझने की बात यह है कि वह ऐसा क्यों कर रहे है. देश की उन्नति और उज्ज्वल भविष्य के लिये सार्थक क़दम समय-समय पर उठाने चाहिये. तकलीफ़ होती है उन ग़रीब और कमजोर तबके के लोगों को परेशान होते देख. लेकिन क्या हम कुछ परेशानी अपने देश के लिये नहीं झेल सकते वैसे भी हम ता- उम्र  परेशान ही रहते है.समय और विचारों की सार्थकता को समझते हुये भविष्य में सार्थक क़दम उठाये, राजनितिक संगठनों की बयान बाजी को  देखते हुये हमें स्वय के विवेक से देश हित में प्रयास रत होना चाहिए।जो सही है उसे डर क्या और जो गलत है उसे ज़िद क्यों।  
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हम लोगों से शांति की अपील करते हैं कि विरोध में रैलियों का आयोजन करने वाले राष्ट्रीय संपत्ति का नुकसान होने से बचाएँ और हिंसक आंदोलन को हवा न दें। 


 अनीता सैनी 

Saturday, 7 December 2019

"पुलिस बनी न्यायधीश"


गत 29 नवंबर को हैदराबाद में हुआ 
महिला चिकित्सक का सामूहिक बलात्कार और जघन्य
 क़त्ल देश को झकझोर गया। कल सुबह ख़बर आयी
 कि पुलिस जब इस केस के चारों आरोपियों को रात 3 बजे 
अपराध स्थल पर घटना के सूत्र एकत्र करने के लिये ले गयी जहाँ पुलिस के अनुसार आरोपियों ने 
उनके हथियार छीनकर पुलिस पर हमला करने की कोशिश की तो पुलिस ने उन्हें गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया।
अब इस काँड पर देश में एक ओर जश्न मनाया जा रहा है, 
मिठाइयाँ बाँटीं जा रही हैं तो दूसरी ओर पुलिस की करतूत पर सख़्त ऐतराज़ भी किया जा रहा है। किसी भी आरोपी को अपराधी न्याय-तंत्र के द्वारा घोषित किया जाता है। 
पुलिस की थ्योरी अक्सर अदालतों में नकार दी जाती है। 
कई बार आरोपी बदल जाते हैं जैसा कि गुरुग्राम (गुड़गाँव )
 के एक निजी विद्यालय में 2017 में 
एक मासूम बालक की गला काटकर निर्मम हत्या कर दी थी
 तब बस कंडक्टर को पुलिस ने षड्यंत्र के तहत आरोपी बनाया जबकि सीबीआई जाँच में असली अपराधी तो
 उस विद्यालय का ही एक किशोर निकला। मुठभेड़ को तर्कसंगत मानना तभी सही होता है जब अपराधी की स्पष्ट पहचान अदालत द्वारा कर ली जाय या सामने वाला सुरक्षा बल पर हमला करने की स्थिति में सक्षम हो। 
यहाँ त्वरित न्याय का सवाल विवादों के घेरे में आ गया है।  
लोकतंत्र में व्यक्ति के अधिकारों की व्याख्या है तो दायित्वों की भी स्पष्ट परिभाषा उल्लेखित है. भारत में ऐसे अनेक प्रकरण हैं सबूत के रूप में जहाँ पुलिस ने निर्दोष लोगों को आरोपी बनाया है. पुलिस जब ख़ुद ही न्यायाधीश बन जाय तो फिर व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न उठने लाज़मी हैं. पुलिस की मनमानी पर नियंत्रण के लिये अनेक स्तरों पर व्यवस्था की गयी है. 
अभी हाल ही में समाचार आया था छत्तीसगढ़ के सारकेगुड़ा में 2012 में हुआ एनकांटर फ़र्ज़ी था. न्यायिक जाँच में स्पष्ट हुआ कि  सुरक्षा बल ने निर्दोष 17 ग्रामीणों को माओवादी बताकर मार डाला जिसमें नाबालिग भी शामिल थे. क्या हमें ऐसी स्वतंत्रता मिली है जिसमें किसी भी निर्दोष नागरिक को भी इस तरह मौत के घाट उतारा जा सकता है, वह भी सरकारी तंत्र की ग़लत मंशा के चलते जो बहुत बड़ी चिंता का विषय है. ऐसे एनकांटर का शिकार अक्सर ग़रीब ही क्यों होते हैं? समाज में अपराधों का ठीकरा हम ग़रीबों के सर ही फोड़ते हैं लेकिन हम विचार करें कि वे इस स्थिति तक पहुँचे कैसे. ज़रुर उनका किसी ने हक़ छीना है. 
क़ानून का ख़ौफ़ होना चाहिए इस बात पर सभी सहमत हैं लेकिन उसका दुरूपयोग नहीं होना चाहिए. 
जिस दिन हैदराबाद की महिला चिकित्सक के साथ दरिंदगी का भयावह समाचार आया उसी दिन उत्तर प्रदेश, झारखंड और गुजरात से भी महिलाओं पर हुए जघन्य अपराध बलात्कार की ख़बरें थीं लेकिन देशभर की जनता का ध्यान केवल एक घटना पर ही क्यों केन्द्रित किया गया? शायद यहाँ भी राजनीति अपनी कुटिल चाल में सफल हो गयी. 

महिला होने के नाते महिलाओं की अस्मिता पर होने वाले हरेक अत्याचार का मुखर विरोध करूँगी किंतु अपनी मुद्दे के विश्लेषण की क्षमता पर कभी क्षुब्ध नहीं हो सकती.

©अनीता सैनी 

Thursday, 14 November 2019

विनम्र श्रद्धांजलि और श्रद्धा सुमन अर्पित हैं।


आपकी पहचान के लिये आपका नाम ही काफ़ी है

 डाक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह।

बिहार के पुत्र, दुनिया के जाने माने महान गणितज्ञ,होनहार,

प्रतिभा के धनी,बचपन से ही शांत व गंभीर स्वभाव के धनी,विश्व गणित कांग्रेस अमेरिका में भारत का सर ऊंचा उठाने वाले,एक सामान्य परिवार में जन्म हुआ था आपका

परन्तु आप सदैव ही न जाने क्यों सरकार की तरफ से उपेक्षित होते  रहे |

जब आप पटना विज्ञान महाविद्यालय में पढ़ते थे 

 आपकी मुलाकात अमेरिका से पटना आये प्रोफेसर कैली से हुई आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर प्रोफेसर कैली ने आपको  बरकली आकर शोध करने का निमंत्रण दिया।१९६३ में आप कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में शोध के लिये गये। १९६९ में आपने कैलीफोर्निया विश्वविघालय में पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त की। चक्रीय सदिश समष्टि सिद्धांत पर किये गये आपके शोध कार्य ने आपको भारत और विश्व में प्रसिद्ध कर दिया।

आपने  वाशिंगटन में गणित प्रोफेसर के पद पर भी काम किया। 

१९७१ में आप भारत वापस लौट आये। आपने भारतीय प्रौद्योगिकी  संस्थान कानपुर और भारतीय सांख्यकीय संस्थान  कोलकाता में काम किया।१९७३ में आपका विवाह वन्दना रानी के साथ हुआ। १९७४ से आपको मानसिक दौरे आने लगे। आपका राँची में इलाज हुआ। लम्बे समय तक आप मानसिक पीड़ा के साथ गाएब रहे फिर एकाएक आप हमें मिल गये। आपको बिहार सरकार ने इलाज के लिये बेंगलुरू भेजा था लेकिन बाद में  बीमारी  का ख़र्च देना सरकार ने बंद कर दिया। इससे बड़ी सरकारी निर्ममता की मिशाल  ढूंढ़ना मेरे लिये सायद बहुत मुश्किल है। जनदबाव में एक बार फिर से बिहार सरकार ने आपके  इलाज के लिये  पहल की थी। विधान परिषद की आश्वासन समिति ने १२  फ़रवरी २००९ को पटना में हुई अपनी बैठक में आप को इलाज के लिये दिल्ली भेजने का निर्णय लिया।

 समिति के फैसले के आलोक में भोजपुर जिला प्रशासन ने आपको  १२  अप्रैल २००९  को दिल्ली भेजा।आपके साथ दो डॉक्टर भी भेजे गये थे। दिल्ली के मेंटल अस्पताल में जांच के बाद डॉक्टरों के परामर्श पर आपके  लिये आगे के ख़र्च का बंदोबस्त किया गया।

स्वास्थ्य विभाग का कहना था कि दिल्ली में परामर्श

 के बाद यदि ज़रूरत पड़ी तो उन्हें विदेश भी ले जाया जा सकता है।

 पिछले दिनों आरा में आपकी आंखों में मोतियाबिन्द का सफल ऑपरेशन हुआ था। कई संस्थाओं ने आपको गोद लेने की पेशकश की थी लेकिन आपकी माता जी को यह मंज़ूर नहीं था।

आज १४ नवंबर  २०१९ को देश की महान प्रतिभा,

 बिहार की विभूति, महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का निधन हो गया है। आप अपने परिजनों के संग पटना के कुल्हरिया कॉपलेक्स में रहते थे। बताया जा रहा है कि आज आपकी  तबियत ख़राब होने लगी, जिसके बाद तत्काल परिजन पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल लेकर गये।जहां डॉक्टरों ने आपको  मृत घोषित कर दिया ।सोशल मीडिया पर समाचार मिले हैं कि आपके शव को घर ले जाने के लिये मेडिकल कॉलेज प्रशासन द्वारा एंबुलेंस भी उपलब्ध नहीं करायी गयी। एक अभागे महान वैज्ञानिक के शव को अंत में घोर सरकारी उपेक्षा और नकारेपन का शिकार होना पड़ा।

अफ़सोस!

हमारी विनम्र श्रद्धांजलि और श्रद्धा सुमन अर्पित हैं।

© अनीता सैनी


Tuesday, 8 October 2019

मंदसौर में रावण दहन



संयोग ही था कि आज दशहरे के अवसर पर मैंने उसे शुभकामनाएँ देनी चाहीं और वह मेरा मुँह ताकती रही | मन कुछ विचलित-सा हुआ कि कहीं कुछ ग़लत तो नहीं कह दिया | उसने हलकी मुस्कान के साथ कहा-
"हम गाँव से पहली बार बाहर निकले हैं | कुछ ही महीने हुए  हैं जयपुर आये हुए, हमारे वहाँ इस तरह रावण दहन नहीं करते जिस तरह यहाँ जयपुर में  किया जाता है" | 
मेरी उत्सुकता और बढ़ गयी तब मैंने कहा-
"क्यों ?"
उसने कहा-
"वह दामाद था हमारा और दामाद कैसा भी हो, दमाद ही होता है इसीलिए हमारे मध्य प्रदेश में कई स्थान ऐसे हैं जहाँ रावण का दहन नहीं होता है बल्कि उसकी पूजा की जाती है। हमारे मंदसौर में तो लोग रावण को अपने क्षेत्र का दामाद मानते हुए उसकी पूजा करते हैं।वहाँ की बहुएँ  रावण की प्रतिमा के सामने घूंघट डालकर जाती हैं क्योंकि मंदसौर ज़िले को रावण का ससुराल माना जाता है यानी उसकी पत्नी मंदोदरी का मायका। पूर्व में इस ज़िले को दशपुर के नाम से जाना जाता था । हमारे खानपुरा क्षेत्र में रुण्डी नामक स्थान पर रावण की प्रतिमा स्थापित है, जिसके दस सर हैं।" 
उसने आगे कहा-
"दशहरा के दिन यहाँ  के नामदेव समाज के लोग प्रतिमा के समक्ष उपस्थित होकर पूजा-अर्चना करते हैं। उसके बाद राम और रावण की सेनाएँ निकलती हैं। रावण के वध से पहले लोग रावण के समक्ष खड़े होकर क्षमा-याचना करते हैं।"
 वे कहते हैं -
“आपने सीता का हरण किया था इसलिए राम की सेना आपका वध करने आयी है ” 
उसके बाद प्रतिमा स्थल पर अंधेरा छा जाता है और फिर उजाला होते ही राम की सेना उत्सव मनाने लगती है |
उसने और आगे कहा -
"रावण हमारे मंदसौर का दामाद था इसलिए हम महिलाएँ जब प्रतिमा के सामने पहुंचते ही घूंघट डाल लेती हैं। दामाद कैसा भी हो, उसका ससुराल में तो सम्मान होता ही है मगर इसके ऐतिहासिक और धार्मिक ग्रंथों में उदाहरण कहीं नहीं मिलते। सब कुछ परंपराओं, दंतकथाओं और किंवदंतियों के अनुसार चलता आ रहा है।” 
हमारा भी इन परम्पराओं से एक रिश्ता-सा जुड़ गया है जिस तरह यहाँ ख़ुशियाँ मनायी जाती हैं वैसे हमारे गाँव में नहीं मनाई जाती, वह ख़ुश थी या दुखी मैं कुछ समझ नहीं पायी परन्तु कुछ था जो अंदर ही अंदर टूट रहा था परम्परा के नाम पर कुछ अवधारणा के नाम, पर कुछ उन शब्दों के नाम पर जो समाज को तय दिशा दिखाने के लिये लिखे गये हैं | कल्पनाओं से उपजे हैं या यथार्थ की भूमि से उपजे हैं या स्वार्थवश इंसान के अंतरमन से. ... 

©अनीता सैनी 

Tuesday, 18 June 2019

एक सवाल ख़ामोशी से

     मेरे हृदय में उमड़ता वात्सल्य-भाव अपनी चरम सीमा लाँघने लगता है जब आठ साल का एक मासूम बच्चा अपना बड़प्पन दिखाते हुए ज़िंदगी से जद्दोजहद कर उसे सँवारने की भरपूर कोशिश करता है और उम्मीद को अपने सीने से लगाये घूमता है। अपने कार्य  के प्रति समर्पण भाव दर्शाते हुए उसके पूर्ण होने का दावा करता है। ऐसा ही एक बच्चा था भानु। तीसरी कक्षा का वह छात्र मुझे रिझाने की भरपूर कोशिश करता था। उसके नन्हे ज्ञान-भंडार में भी नहीं थी इतनी शालीनता जितनी वह  मुझे दिखाने की कोशिश करता था। उसका शर्मीला शालीन स्वभाव सबको बड़ा प्रिय था। वैसे तो कक्षा के सभी बच्चे मुझे बहुत प्रिय थे परन्तु भानु कुछ अलग ही था। कभी-कभी वह मध्यान्ह-अवकाश का भोजन मेरे साथ समाप्तकर अपने आप को  गौरवान्वित महसूस करता था। धीरे-धीरे इसी तरह वक़्त अपनी सीढ़ियाँ चढ़ता गया और हम उसके साथ चलते रहे। एकाएक एक दिन पुस्तकालय से काफ़ी शोर-शराबे की आवाज़ आयी। अनायास ही मेरे क़दम उस ओर बढ़ते चले गये। मैं पुस्तकालय के दरवाज़े पर अपना क़दम रखने वाली ही थी की मिस शुक्ला की झिड़कीमिश्रित तल्ख़ आवाज़ आयी-

"मिस नीता! 

देखिये! आपके होनहार छात्र का कमाल! 

कभी भी गृहकार्य समय पर पूर्ण नहीं मिलता और आज तो कमाल ही हो गया। 

महाशय पुस्तक ही भूल गये। 

आज इसके माता-पिता को विद्यालय में उपस्थित होने के लिए कहा है।"


           मैं कुछ कहने कि स्थति में नहीं थी और पास ही बेंच पर बैठ गयी एक निगाह भानु की ओर दौड़ायी। 

 वह भी अपनी गर्दन झुकाये खड़ा था। उस बच्चे की आँखों से आँसू रोके नहीं रुक रहे थे। वह कोशिश कर रहा था कि उसके आँसू मुझे न दिखाई दें। मेरे सामने धूमिल हो रही उसकी छवि अब उसकी समझ से परे थी। वह बार-बार अपना चेहरा छिपा रहा था और मैं वहाँ से जाना चाहती थी परन्तु मिस शुक्ला की बातों में इस क़दर उलझ गयी कि मेरा वहाँ से जाना मिस शुक्ला को अपमानजनक लगता। 


             मिस शुक्ला की भानु को लेकर शिकायत वाज़िब थी परन्तु गणित आज एक ऐसा विषय बन गया है जिससे सामान्य बुद्धि के बच्चे बचना चाहते हैं। वे क्या समझे हैं और क्या नही। एक बालमन इस अंतरबोध से परे अपना दृष्टिकोण सजाता है और धीरे-धीरे उसका आँकलन अपनी समझ से करना चाहता है जहाँ उसे उलझन महसूस होती है वह इससे दूर भागना चाहता है। यह समझ का वह पड़ाव है जहाँ ऐसी  स्थित में उलझे बच्चे को एक सच्चे साथी की आवश्यकता महसूस होती है। यही वह परिस्थिति है जहाँ बच्चा आत्मसम्मान के बीज हृदय में अँकुरित करता है और अपने लिये एक रास्ता  चुनता है। 


तभी भानु के माता-पिता वहाँ पहुँचे |


भानु के मम्मी-पापा का ग़ुस्से में तमतमाया हुआ था चेहरा। वे इस बात को बहुत अपमानजनक मानते थे कि उनके बेटे की शिकायत उन्हें यहाँ तक खींच लायी  है और उन्हें इस  अपमान का सामना करना पड़ा। 


मिस शुक्ला - ( भानु के माता-पिता को बैठने का इशारा करती हुई ) "देखिये! आजकल भानु की शरारतें  बहुत बढ़ गयी हैं।  आपको भी इस ओर ध्यान देने की बड़ी आवश्यकता है।" 


भानु की मम्मी- "सुनता कहाँ है आज कल किसी की!" 

( भानु की तरफ़ ग़ुस्से  से देखती हुई )

भानु के पापा- आज शाम मैं इसकी ख़बर लेता हूँ, टी.वी., खेलना-कूदना सब बंद! 

(और उन्होंने एक लम्बी साँस ली )


मिस शुक्ला - ( अपना मुँह बनाती हुई ) "वह तो ठीक है परन्तु बच्चे का इस तरह लापरवाह होना ठीक नहीं।  उसे अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए।"

 और उन्होंने भानु को अपनी ओर आने का इशारा किया।  


          भानु अपना गुनाह स्वीकारते हुए गर्दन झुकाये खड़ा था, मैं बड़े ही ध्यानपूर्वक मौन अवस्था में यह वाकया घटित होते देख रही थी। कुछ अपना भी पक्ष रखना चाहती थी परन्तु समय ठीक नहीं लगा और मेरे विचार इस वार्तालाप के विपरीत थे इसीलिये  मैंने अपने आपको ख़ामोशी में समेट लिया।  मुझे पता था वही ख़ामोशी बार-बार मुझसे कह रही थी कि मैं ख़ामोश क्यों हूँ? मेरी ख़ामोशी ने उस बच्चे को एक ऐसी राह दिखायी  जो शायद मेरी समझ से परे थी। 


भानु की मम्मी - ( उसका हाथ अपनी ओर खींचती हुई, उसे आँखें दिखाते हुए दोनों होंठ इस तरह बनाये जैसे इस बच्चे ने बहुत बड़ा गुनाह किया हो, मुसीबत का पिटारा तो अब खुलने वाला था। कक्षा परख (क्लास टेस्ट ) में इस बार उसे काफ़ी कम नंबर मिले।  

"यही दिन देखने के लिये हमने  इतने अच्छे विद्यालय में दाख़िला  करवाया तेरा .....!!!!

आँखों ही आँखों में  भानु  को सब कुछ समझा दिया |


तभी मिस शीला वहाँ पहुँची- "ओह! आप भानु  के पेरेंट्स! मैं भी आपसे मिलना चाहती थी।  

बहुत शरारती बच्चा है आपका, पढ़ाई में एक दम ज़ीरो। 

शरारत करने में अव्वल है। 

आप भी इस पर कुछ ध्यान दें। 

फिर पेरेंट्स की शिकायत आती है कि  नंबर कम मिले।" 

(अपनी बात समाप्त करती हुई उसने एक नज़र भानु पर डाली और वहाँ से निकल गयी )


       भानु बार-बार मेरी ओर देखता और गर्दन झुका लेता। 

उस बच्चे की मुझसे उम्मीद थी कि मैं कहूँ कि वह मेरे विषय में अच्छा है और गृहकार्य भी पूर्ण रहता है परन्तु न जाने क्यों मैं कह नहीं पायी  और वहाँ से बाहर निकल गयी।  इस घटना के कुछ दिन बाद तक  भानु विद्यालय नहीं आया और कुछ दिनों   तक मेरा  अवकाश रहा। उस  दिन के बाद हमारी दूरी इतनी बढ़ गयी कि वह बच्चा मेरे सामने आने से भी कतराने लगा। क्या वजह थी कि एक पल में वह इतना बदल गया। कभी-कभार आँखों ही आँखों में उससे बातें होती थी। कुछ सवाल थे उस बच्चे की आँखों में जो आज भी मुझसे कह रहे हैं  कि उस वक़्त मैं ख़ामोश क्यों थी ? क्यों नहीं कहा कि वह  बहुत अच्छा बच्चा है ?  

कभी-कभार ख़ामोशी ढ़ेर सारे सवाल छोड़ जाती है और यही प्रश्न करती है कि ख़ामोशी  ख़ामोश  क्यों थी ?


                              @ अनीता सैनी

   

Monday, 17 June 2019

कितना सहेगी और कब तक ?



धूप से  तपती  धरा, तार-तार  तन के वस्त्र, न शीश छुपाने की जगह, न एक बूँद पानी। पीड़ा से क्षत-विक्षत हृदय, आने वाले कल का कलुषित चेहरा अब आँखों के सामने मंडराने लगा। 

बार-बार  कराहने की आवाज़ से क्षुब्ध मन, पीड़ा के अथाह सागर में गोते लगाता हुआ। पलभर सहलाना फिर जर्जर अवस्था में छोड़कर चले आना। यही पीड़ा उसे और विचलित करती!

 कुछ पल स्नेह से सहला आँखों ही आँखों में दो चार बातें कर, स्नेह का प्रमाण-पत्र उस के तपते बदन के पास छोड़ महानता का ढोल पीटती हुई, रुख़ घर की ओर किया.....!!!

इस बार तापमान सातवें आसमान पर था। पानी का स्तर पाताल को छूता, समेटा गंगा ने अपना जीवन। सूर्य  धरा को अपने तेज़ से झुलसाता हुआ, अपने गंतव्य की ओर बढ़ ही रहा था कि  मानव भी उसका सहभागी बन उसका उत्साहवर्धन करने में मग़रूर हुआ जा रहा था। 

हृदय में सुलगता करुण भाव, आँखों में चंद आँसू और मैं अपने दायित्व से मुक्त हो बग़ीचे की बेंच पर बैठ मुस्कुराती हुई आने-जाने वालों को एक टक निहारती। कुछ पल अपने आपसे बातें करती हुई।  इसी दिनचर्या में मैंने अपने आपको समेट लिया। 

           आज शाम कुछ अलग-सी थी।  बादल के एक-दो टुकड़े भी मुझेसे  मिलने आये, हवा भी आस-पास ही टहल रही थी। तभी आसमां  में धूसर रंग उमड़ने लगा और  मैं अपने आपको उसमें रंगती, भीनी-भीनी  मिट्टी की ख़ुशबू से अपने आपको सराबोर करने लग। नज़ारा कुछ ऐसा बना कि आसमान में काले बादलों संग आँधी भी अरमानों पर थी। 

(तभी ज़ोर से चिल्लाने की आवाज़ ) मैं  बैंच पर अपने आपको  तलाशने लगी..  


रीता -- 

(कुछ बौखलाई हुई ) चलो घर, पूरे कपड़े ख़राब हो गये, मिट्टी का मेक-अप उफ़ ! मेरा चेहरा....


संगीता -- 

(ढाढ़स बँधवाती हुई ) अरे! कुछ देर बैठ, हवा के साथ बादल भी छंट जाएँगे, वैसे भी काफ़ी अच्छी हवा चल रही है, आँधी से इतना क्यों परेशान हो रही हो?  देख सूरज ने कितना जलाया है मुझे?  वह अपना हाथ उसे दिखने लगी। 

              ( सूर्य की किरणों से होने वाला त्वचा कैंसर आज समाज में आम-सी दिखने वाली बीमारी बन गयी है )

सुनीता -

 ( अपना मुँह बनाती हुई ) क़सम से यार कितनी धूप है यहाँ! चलो मेरे घर, कुछ देर  एसी  की  हवा  में ठहाके लगाते हैं। 


रीता -

 ( सुनीता का समर्थन करती हुई ) चलो कुछेक कोल्ड ड्रिंक भी ऑर्डर कर देते हैं (उसने मेरी तरफ़ ताकते  हुए कहा )


   ( मैं वहाँ ऐसे पेड़ की छाँव में बैठी जो आभास मात्र अपना एहसास करा रहा था | मुझे भी दिखावा मात्र ऐसे सहारे की आवश्यकता थी जो लगे मैं छाँव में बैठी हूँ।  वो उजड़ा हुआ बग़ीचा अक्सर मुझसे बातें करता।  मैं भी उससे काफ़ी बातें करती। घुलने-मिलने के बाद उसे सँवारने की  काफ़ी कोशिश की  पर नाकाम रही।)

अब वहाँ से सभी जा चुके थे पर मैं उसी बेंच से चिपक गयी।  हल्की-हल्की बूँदा-बाँदी होने लगी। एक-एक बूँद धरा के  तपते बदन को छूती और अपना अस्तित्व गँवा देती।  दस मिनट यूँ ही बारिश होती रही, एक बूँद भी धरा पर नज़र नहीं आयी। धरा की यह तपती काया अपनी अतृप्तता  का  बोध करती और व्याकुल नज़र आने लगी। ठूँठ बने उस छोटे से पेड़ से एक-एक बूँद टपकती और धरा से अपना स्नेह जताती इस स्नेह की साक्षी मैं शून्य का भ्रमण करती उन्हें देखती रही। एक बूँद भी उसने अपने तन पर नहीं रखी। एक-एक कर सभी बूँदें  धरा को समर्पित कर अपने निस्वार्थ प्रेम  का बोध करता सदृश्य।  ज़ब भी उस सूखे वृक्ष को देखती हूँ उसका धरा के प्रति समर्पण शब्दों से परे. ...!!!!


संगीता -

 (आश्चर्य से मुझे देखती हुई ) अरे दी आप यहीं बैठी हैं!  


मैं -

 जी आप भी  बैठिए ( मैंने बड़प्पन दिखाया )


रीता -

 नहीं वो मौसम अच्छा हो गया सो टहलने आ गये, वैसे हम....

          (और उसने बेफर्स मुँह में डाल लिये )

संगीता - 

आप अक्सर यहाँ आती हैं? ( बात बढ़ाते हुए कहा )


मैं -

 जी (जब भी वक़्त मिलता है )


सुनीता -

  ( रेपर और कोल्ड्र-ड्रिंक की ख़ाली बोतल बेंच के नीचे डालती हुई ) चलो पार्क का राउंड लगाते हैं...

(और वो लोग वहाँ से चले गये )

आज तन धरा का जला, कल हमारा। बेख़ौफ़ दौड़ रहे किस राह पर.. !!

भविष्य का भयानक चेहरा, असंवेदनशील होती सोच, क्यों नहीं समझ रहे धरा का दर्द, कितना सहेगी और कब तक ?

                                                    - अनीता सैनी