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Saturday, 22 April 2023

बिडंबना

        लघुकथा /बिडंबना /अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुमनाम डायरी से

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            प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा था। मैं गाँव के बाहर नीम के नीचे चबूतरे पर पसरा पड़ा था। मेरा एक पैर और एक हाथ चबूतरे से नीचे लटका हुआ था। डालियों से झाँकती धूप रह-रहकर मेरी देह जला रही थी। दो गिलहरियाँ मेरे पास ही खेल रही थी। वे उचक-उचक कर देख रही थीं मुझे। 

     गाँव के बच्चों लिए मैं कौतुहल का विषय था। वे जो अभी-अभी दो औरतें निकली थीं न, उनमें एक देवकी भाभी है। शायद वह नहीं पहचान पाई मुझे। मैं पूरे उन्नीस वर्ष बाद गाँव आया हूँ।

  आसमान से झाँकते तारे, गायें रँभाती हुई गाँव की तरफ़ दौड़ रही थीं। कुत्तों के भौंकने का स्वर मेरे कानों से टकरा रहा था।

 रास्ते से गुज़रते हुए बिरजू काका की नज़र जैसे ही मुझ पर पड़ी उन्होंने मेरा लटका हुआ हाथ सीने पर और पैर चबूतरे पर रखा।

 छगन काका ने मेरा मुँह सूँघते हुए कहा- "दारू पी के पड़ा है, पर है कौन?” जब वे  हमारे घर के सामने से गुज़रे, उन्होंने माँ से मजाक में यों ही कह दिया- ”उन्नीस वर्ष बाद तुम्हारा धर्मवीर आया है,वहाँ! नीम के नीचे पसरा पड़ा है।”

माँ ने भी तपाक से कह दिया-"उसने आज तक मुझे कौनसा सुख दिया है। जो आज देने आया है।"

 चीटियाँ मेरे कान में घुसने लगी थीं। मैंने देखा मेरे कान से ख़ून बह रहा है। मैं उठकर बैठ गया परंतु मेरा शरीर वहीं चबूतरे पर पसरा पड़ा था।

माँ-बापू को अनजान आदमी में बेटे के होने की लालसा खींच लाई शायद। वे मेरी ओर ही दौड़ते हुए आ रहे हैं और पीछे-पीछे छोटा भाई भी। ये हाथ बाँधे क्यों खड़े हैं? "मैं हूँ तुम्हारा धर्मवीर मैं…मैं।” कहते हुए मैं बापू को घूरने लगा।

 "देखना! छोटा भाई देखते ही मुझे सीने से लगा लेगा।” इस विचार के साथ ही मैं मचल उठा।

"बेसुध पड़ा है पीकर।” कहते हुए छोटे भाई ने दूरी बना ली। मेरे 'मैं ' को बहुत ठेस पहुँची और मैंने लंबी साँस भरी।

माँ मेरी पीठ पर कुछ ढूँढ़ रही थी।

”शारदा वो नहीं है यह।" कहते हुए बापू ने माँ का हाथ पकड़कर खींच लिया। यों एक अनजान आदमी वो भी एक शराबी, बापू को माँ का यों छूना गवारा न था। माँ का स्पर्श मुझे बहुत अच्छा लगा। माँ विश्वास और अविश्वास के तराजू में तुल रही थी। दिल और दिमाग़ के खेल में माँ का दिमाग़ जीत गया। हड़बड़ी में माँ भूल गई वह चोट का निशान मेरे दाहिनी साइड में है न की बायीं ओर।

बापू ने मेरे मुँह पर पानी डाला। कुछ पिलाने का प्रयास भी किया। प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा था परंतु एक घूँट भी मैं गटक नहीं पाया। यह देखकर माँ रोने लगी। छोटा भाई अब भी दूर खड़ा था। वह मेरे पास नहीं आया। बापू ने कहा- "पता नहीं कौन है? यहाँ हमारे गाँव में ही आकर क्यों मरा?”

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-04-2023) को  "बंजर हुई जमीन"    (चर्चा अंक 4658)   पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. मार्मिक लघुकथा।

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  3. पुत्र को पहचानने के लिए माँ को किसी निशान देखने की ज़रूरत नहीं होती, मार्मिक कहानी

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    1. जी बहुत सुंदर। काश मेरी कल्पना में उतरी उस माँ को मैं भी कह पाती जो अचानक हुई इस घटना से विश्वास और अविश्वास के तराजू में तूल रही थी।

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