Saturday 1 April 2023

विसर्जन



                   ”गणगौर विसर्जन इसी बावड़ी में करती थीं गाँव की छोरियाँ।”

  बुआ काई लगी मुंडेर पर हाथ फेरती हुई उस पर बचपन की स्मृतियाँ ढूंढ़ने लगी।

 दादी के हाथों सिले घाघरे का ज़िक्र करते हुए बावड़ी से कह बैठी -

”न जाने कितनी छोरियों के स्वप्न लील गई तु! पानी नहीं होता तो भी तुझमें ही पटककर जाती।”

आँखें झुका पैरों में पहने चाँदी के मोटे कड़ों को हाथ से धीरे-धीरे घुमाती साठ से सोलह की उम्र में पहुँची बुआ उस वक़्त, समय की चुप्पी में शब्द न भरने की पीड़ा को आज संस्कार नहीं कहे।

" औरतें जल्दी ही भूल जाती हैं जीना कब याद रहता है उन्हें कुछ ?”

 बालों की लटों के रूप में बुआ के चेहरे पर आई मायूसी को सुदर्शना ने कान के पीछे किया।

" उस समय सपने कहाँ देखने देते थे घरवाले, चूल्हा- चौकी खेत-खलिहान ज़मींदारों की बेटियों की दौड़ यहीं तक तो थीं?”

जीने की ललक, कोंपल-से फूटते स्वप्न; उम्र के अंतिम पड़ाव पर जीवन में रंग भरतीं सांसें ज्यों चेहरे की झूर्रियों से कह रही हों तुम इतनी जल्दी क्यों आईं ?

चुप्पी तोड़ते हुए सुदर्शना ने कहा-

"छोरियाँ तो देखती थीं न स्वप्न।”

"न री! बावड़ी सूखी तो तालाब, नहीं तो कुएँ और हौज़ तो घर-घर में होते हैं उनमें डुबो देती हैं।”

”स्वप्न या गणगौर ?”

सुदर्शना ने बुआ को टटोलते हुए प्रश्न दोहराया।

 हृदय पर पड़े बोझ को गहरी साँस से उतारते हुए सावित्री बुआ ने धीरे से कहा-

"स्वप्न।” 


@अनीता सैनी 'दीप्ति'

32 comments:

  1. स्वप्न या गणगौर ?”
    सुदर्शना ने फिर यही प्रश्न दोहराया।
    बड़प्पन का मुकुट ज़मीन पर पटक, मुँह फेरते हुए धीरे से कहती है।
    "दोनों।”
    हृदयस्पर्शी .., भावपूर्ण कृति ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हृदय से आभार आपका
      सादर स्नेह

      Delete
  2. लगता है स्त्रियों को स्वप्न देखने की इजाज़त भी नहीं । देख भी लिया तो उनको कहीं भी कैसे भी डुबोना ही है । मर्मस्पर्शी लिखा है ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हृदय se आभार आपका.
      सादर स्नेह

      Delete
  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 29 जुलाई 2022 को 'भीड़ बढ़ी मदिरालय में अब,काल आधुनिक आया है' (चर्चा अंक 4505) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार आपका मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

      Delete
  4. बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन ।
    स्वप्न देखने की चाहे कितनी भी मनाही रही हो गणगौर में तो स्वप्न देख ही लिए होंगे चोरी छुपे ही सही मन ने ... डुबाने ही सही । आखिर मन पर किसका वश चलता है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. स्त्री हृदय सभी की परवाह कर चलता है घर परिवार पिता और पति लेकिन जैसे जैसे समय का सूरज ढलता है हृदय स्वतः बिखरने लगता ऐसी पीड़ा मैंने अनुभव की है काफ़ी औरतों की।
      आपने सही कहा गणगौर ने तो स्वप्न देख ही लिया था अंत में उसे डूबना ही क्यों न पड़ा हो, मेरे भावों को समझने हेतु हृदय से अनेकानेक आभार।
      सादर स्नेह

      Delete
  5. प्रिय अनीता ,बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन...। सपनों को डूबते देखना कितना कष्टदायक होता है ...।पर मन पर वश कहाँ ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. सही कहा प्रिय शुभा दी जी।
      हृदय से आभार.
      सादर स्नेह

      Delete
  6. आपके द्वारा कहानी गढ़ने का नायाब तरीका पाठक का मन मोह लेता है. स्वप्न द्वारा मन की भाव बाहर लाने की कला कहानी में रोचकता लाती है. लिखते रहें.

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर नमस्कार सर।
      हृदय से आभार।
      आपकी प्रतिक्रिया से उत्साह द्विगुणित हुआ। आशीर्वाद बनाए रखें।
      सादर प्रणाम

      Delete
  7. अनीता, रंग-रंगीलो राजस्थान की महिमा का गुणगान तो तुमने बहुत बार किया है और बहुत सुन्दर तरीक़े से किया है लेकिन आज पहली बार तुमने राजस्थान के लिंगभेदी सामाजिक कलंक को अपनी लघु-कथा का आधार बना कर बड़े साहस का काम किया है. तुमको इसके लिए शाबाशी के साथ बधाई !

    ReplyDelete
    Replies
    1. आदरणीय गोपेश जी सर सुप्रभात।
      हृदय से आभार।
      आपका आशीर्वाद हमेशा संबल प्रदान करता है।
      मैं विरोध नहीं करती कभी ठीक है जो भी अवधारणा लोगों ने गढ़ी है कुछ विचार तो अवश्य किया होगा।
      परंतु राजस्थान में नव विवाहिता गणगौर की स्थापना करती हैं सोलह दिन उसकी पूजा अर्चना करती हैं। उसके पीछे की कहानी शायद औरतों के हृदय में डर की स्थानपना करने हेतु ही गढ़ी गई है। शादी के बाद उन्हें इसकी याद दिलाई जाती है कि ध्यान रखना इसके साथ जो हुआ।मेरा दृष्टिकोण है किसी के हृदय पर आघात नहीं करना चाहती।
      सादर प्रणाम

      Delete
  8. आपकी लिखी रचना सोमवार 01 अगस्त 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

    ReplyDelete
    Replies
    1. हृदय से आभार आदरणीया संगीता दी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

      Delete
  9. स्त्री मन को छूती सराहनीय लघुकथा ।

    ReplyDelete
  10. अनीता जी, गणगौर की कहानी तो मुझे नहीं मालूम है लेकिन आपकी रचना मन को छू गई।
    सादर

    ReplyDelete
  11. सारयुक्त ,गहन भाव उकेरे हैं।
    अपने स्वप्नों को जीना हर स्त्री के भाग्य में कहाँ।
    मन को अनेक प्रश्नों से बींधती मर्मस्पर्शी लघुकथा।
    सस्नेह।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हृदय से अनेकानेक आभार आपका।

      Delete
  12. "न री! बावड़ी सूखी तो तालाब, नहीं तो कुएँ और हौज़ तो घर-घर में होते थे उनमें डुबो देती।”
    स्त्री के मन की पीर को छूती मार्मिक रचना👌

    ReplyDelete
    Replies
    1. हृदय से आनेकाने आभार आदरणीय दी आपका।

      Delete
  13. जल्दी ही जीना भूल जाती हैं औरतें कब याद रहता है उन्हें कुछ ?” सही है। सादर।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी हृदय से आभार आपका।
      सादर

      Delete
  14. बहुत ही सुंदर भावपूर्ण सृजन

    ReplyDelete
  15. डॉ विभा नायक3 August 2022 at 17:10

    मोहक🌹🌹

    ReplyDelete
  16. गणगौर के विसर्जन के साथ किशोर स्वप्नों का विसर्जन।
    कितनी गहन मर्माहत पीड़ा होगी शारदा के उर में एक सपने देखने के वय में कितनी सखियों ने और कितनों ने पहले और कितनों ने बाद में अपने सपनों का विसर्जन किया होगा।
    श्र्लाघनीय लेखन।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हृदय से आनेकानेक आभार आदरणीय कुसुम दी जी।
      आपका आशीर्वाद यों ही बना रहे।
      सादर स्नेह

      Delete