”हाथ बढ़ाओ…अपना अपना हाथ बढ़ाओ …हाथ…!”
सत्तासीन दोनों हाथ झुकाए, नीचे खड़े व्यक्तियों के हाथ थामता और उन्हें खींचकर शिखर पर मौजूद कुर्सी पर बैठा देता।शिखर पर अच्छी व्यवस्था है।रहने, खाने-पीने घूमने-फिरने की मानो सभी के लिए शिखर को पाना ही जीवन का सार हो। प्रत्येक व्यक्ति के लिए वही सुख का द्वार हो चूका है परंतु यह क्या? सत्तासीन ने अपनी दोनों आँखें सर पर रखीं हैं! जैसे बालों पर फ़ैशन के लिए एनक रखा जाता है। बुधिया यह दृश्य देख विचलित हो जाता है। बदन से बहते पसीने को अंगोछे से बार-बार पोंछता है।
”हे प्रभु! बहुत दूर से आया हूँ। बाप ने ज़मीन माँ ने जेवर गिरवी रखें हैं।मुझे यहाँ तक पहुँचाने के लिए।”
बुधिया तीसरे पड़ाव पर खड़ा स्वयं ही बड़बड़ाता है। मुट्ठी में दबाई मुद्रा को चूमता फिर सीने से लगा लेता फिर एक टक कोरे आसमान को निहार लंबी साँस भरता।
"दूर हटाओ इन्हें, दूर हटाओ…दूर…दूर…।"
यह क्या? सत्तासीन हाथ के स्पर्श मात्र से चुनाव कर रहा है! बुधिया चौंक गया। वह एक नज़र देखता है उन व्यक्तियों को जो हाथ छूटने से नीचे गिर गए और उन्हें भी जो गिरकर वापस उसी कतार में अपनी जगह बना रहें हैं।
"अक़्ल के अंधे हाथ पत्थर पर रगड़,देख! कैसे दरारें पड़ी हैं? हाथ हैं कि ऊँट के तापड़!"
भीड़ में खड़े सुधी महानुभाव ने बुधिया को पत्थर की ओर इशारा करते हुए कहा। बुधिया जल्दी-जल्दी हाथ पत्थर पर रगड़ने लगता है। बग़ल से बहती नदी में हाथ भिगोता और फिर पत्थर पर रगड़ने लगता। हाथों से बहता लहू देख,अचानक बुधिया को ख़याल आता है, अगला पड़ाव नदी पार करना ही तो है! सो हाथ वैसे ही साफ़ हो जाएँगे। वह चुपचाप फिर वहीं खड़ा हो जाता है।
"बैल बुद्धि…।”
कहते हुए सुधी महानुभाव दाँत निपोरने लगता है।
” बाप रे बाप ! अब यह नई बला क्या?”
बुधिया ने देखा कि, सत्तासीन हाथ पकड़ने वाले के स्वर पर भी ध्यान दे रहा है। जिसका स्वर मीठा है उसे स्नेह, …और जिसका स्वर कर्कश है, उसका हाथ छोड़ रहा है।
”दस वर्ष की अथक मेहनत से यहाँ पहुँचा हूँ प्रभु! बड़ा लम्बा रास्ता तय किया है यहाँ तक पहुँचने के लिए ।”
बुधिया बार-बार कोरे आसमान को ताकता है तो कभी देखता है उन सुधी महानुभावों को जो शिखर के आस-पास ही टहल रहे हैं। उन्हें कोई फ़िक्र नहीं है बारी आने की, घर से दो क़दम की दूरी फिर आ जाएगे, उनके लिए यह सब टहलने मात्र भर से ज़्यादा कुछ नहीं था।
"अगले पाँच वर्ष तक हाथ बढ़ाने का कोई आवेदन नहीं, सभी सीट भरी जा चुकी है।"
सत्तासीन आँखें आँखों पर रखते हुए ऐलान करता है।थकान में लिपटी एक लम्बी साँस के साथ।
इस समाचार से बुधिया की देह ठंडी पड़ जाती है। हाथ से वह सिक्का छूट जाता है। सुस्ताने के लिए बैठना चाहता है कि उसे कोई धक्का देता है।वह दस-बीस सीढ़ी और नीचे खिसक जाता है। अचानक उसे स्मरण होता है,अगले पाँच वर्ष बाद हाथ बढ़ाने वाले आवेदन में उसका आवेदन अस्वीकार्य ही होगा क्योंकि उसकी उम्र निकल चुकी है।बुधिया नदी किनारे हथेलियाँ रगड़ते हुए, पथराई आँखों से बेचैन आत्मा की तरह आज भी शिखर को ताक रहा है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-3-22) को "कविता को अब तुम्हीं बाँधना" (चर्चा अंक 4376 )पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
हृदय से आभार आपका मंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
सत्य और मार्मिक
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका
Deleteसादर
सामायिक सत्य को प्रतिकात्मक शैली में कहना, गहन भाव लिए सारगर्भित तथ्य।
ReplyDeleteसार्थक लघु कथा ।
हृदय से आभार आपका आदरणीय कुसुम दी जी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
गहन भावों की गहन अभिव्यक्ति ॥ मार्मिक लघुकथा ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका।
Deleteसादर
वाकई बहुत ही सारगर्भित सत्य....सत्तासीनों की मर्जी वह भी बस स्पर्श मात्र का चुनाव...मेहनतकश कहाँ जायें...कह़ी आरक्षण तो कहीं अराजकता का शिकार हुए युवा मानसिक संतुलन खो रहें हैं।
ReplyDeleteबहुत ही दमदार लेखन।
वाह!!!
जी हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर स्नेह