”आँगन में बहू के पैर ही शुभ नहीं पड़े ! नहीं तो मेरा राजू क्या कम था पढ़ाई में?" हाथ में लिफ़ाफ़ा लिए नीना बेटे की नाकामयाबी को बहू की परछाई से ढकने का प्रयास करती है।
”मैं तो पहले दिन ही समझ गई थी, थालियों को क्या झट-पट उठा रही थी। अरे! थोड़ी शर्म लिहाज तो करती।” रोहिणी नीना के टूटे दिल की छेकड़ से झाँकते हुए उसे टटोलती है।
”ना री रोहिणी! ऐसे तो विश्वास न करूँ? यह तो गुरुजी जी ने कहा है; बहू पर ग्रहों का दोष है अब देखो कब छटेंगे…? "
बेचैनियों के साथ भावों के हिलोरों में बहती नीना। सारा दोषारोपण बहू के सर-माथे मढ़ देती है।
”क्या बहू ने कोई कांड किया? यों माथा पकड़ क्यों बैठी हो?”
चाय की चुस्कियों के साथ उत्सुकता का बिस्किट डूबोते हुए; रोहिणी नीना के ओर समीप खिसक जाती है।
”कल जा रही है बाड़मेर, बुलावा पत्र आया है उसका।”
बहू के जाने से बेचैन नीना नासमझी की लपटों में झुलसती हुई रसोई की ओर जाती है।
”अच्छा, बताओ बहू कहा है? बड़े बुजुर्गो के आगे ढोक देना भी भूल गई क्या?”
रोहिणी चारपाई से उठती है, निगाहें कमरा तो कभी किचन की तरफ़ दौड़ाती है।
"बुआ जी आप तो मिठाई खाइए, स्टेट बैंक में मेरा सिलेक्शन हुआ है, दो दिन बाद जॉइनिंग है।”
दीक्षा प्लेट में मिठाई लिए आती है।
”मैं कहूँ न, लाखों में एक है हमारी दीक्षा; तुम तो बौराय गई हो भाभी।”
झोंके-सी बदलती रोहिणी दीक्षा की बलाएँ लेते हुए अपने सीने से लगा लेती है।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
थाली के बैंगनों की कमी नहीं ।
ReplyDeleteआज भी किसी की गलती दूसरों के सिर मंढ दी जाती है ।
सही कहा आदरणीय संगीता दी जी थाली के बैंगनों की कमी नहीं है।
Deleteहृदय से आभार आपका।
सादर
चलो रोहिणी जान गयी स्टेट बैंक की नौकरी और तनख्वाह ! भाभी को भी समझा ही लेगी। हाँ दोष तो बहू के सर ही मढ़ने हैं चाहे कमाऊ भी क्यों न हो...
ReplyDeleteलाजवाब लघुकथा बहुत ही खूबसूरत तानाबाना।
समाज की विडंबना है यह... हृदय से आभार आपका।
Deleteसादर
स्त्री जीवन के संघर्ष को दर्शाती सराहनीय लघुकथा । बधाई अनीता जी।
ReplyDeleteहृदय से आभार जिज्ञासा जी।
Deleteसादर
बहुत सुंदर
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय गगन शर्मा जी सर।
Deleteसादर
एक सामाजिक विषमता की ओर बड़ी कुशलता से संकेत करती हुई लघुकथा विसंगतियों को दरकिनार कर युवा पीढ़ी के सकारात्मक दृष्टिकोण को दीक्षा के रूप प्रस्तुत करती है । बहुत सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteसारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु हृदय से आभार आदरणीय मीना दी जी। आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
Deleteसादर स्नेह
बहुत सुंदर। बधाई।
ReplyDeleteहृदय से आभार सर।
Deleteसादर
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (26-02-2022 ) को 'फूली सरसों खेत में, जीवित हुआ बसन्त' (चर्चा अंक 4353) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
मंच पर स्थान देने हेतु आभारी हूँ आदरणीय रविंद्र जी सर।
Deleteसादर
मानसिक जड़ता का सटीक उद्घाटन। आधी आबादी को स्वयं ही इसे तोड़ना होगा।
ReplyDeleteहृदय से आभार आदरणीय अमृता दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
Deleteस्नेह बनाए रखें।
सादर स्नेह
गुड़कन लोटे पीठ पीछे कुछ और सामने कुछ और भुवाजी।
ReplyDeleteअपने बेटे की नाकामयाबी का ठीकरा नई बहुत के पग फेरे की भेंट चढ़ा ,सच तो ये था कि बेटे से ज्यादा कामयाब बहु हजम नहीं हो रही ।
गाहे बहागे ऐसे वाक़िए देखने मिलते हैं , सामाजिक धरातल पर सामायिक लघुकथा , सटीक सार्थक हृदय स्पर्शी।
हृदय से आभार आदरणीय कुसुम दी जी सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु। आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।
Deleteआशीर्वाद बनाए रखें।
सादर