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Monday 13 December 2021

अक्षत

      

           "महत्त्वाकांक्षाओं का ज्वार है।”

धैर्य ने समय की नब्ज़ टटोलते हुए कहा।

”नहीं! नहीं!! ज्वार नहीं ज्वर है। देखो! हो न हो यह कोरोना का क़हर है।"

नादानी तुतलाते हुए कहती है।

”अक्ल के अंधो देखो!

शब्दों को त्याग दिया है इसने 

बेचैनियों की गिरफ़्त में कैसे तिलमिला रहा है!

लगता है प्रेम में है।”

धड़कन दौड़ती हुई आती है और समय का हाल बयाँ करती है।

”राजनितिक उथल-पुथल क्या कम सही है, समय सदमे में है।”

बुद्धि तर्क देते हुए अपना निर्णय सुनाती है।

धैर्य सभी का मुख ताकता है, कुछ नहीं कहता और चुपचाप वहाँ से चला जाता है।

"हुआ क्या? कुछ तो बताते जाओ।”

नादानी पीछे से आवाज़ लगाती है।

” कहा था ना! खुला मत छोड़ो स्वार्थ को, निगल गया विवेक को!”

कहते हुए धैर्य नज़रें झुकाए चला जाता है।

”परंतु ज्वर तो समय के है…!"

नादानी दबे स्वर में कहती है।


@अनीता सैनी 'दीप्ति'


26 comments:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 14 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आभारी हूँ आदरणीय यशोदा दी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  2. बहुत सुंदर और सार्थक अभिव्यक्ति।

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  3. चिन्तन परक सृजन ।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय मीना दी जी।
      सादर

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  4. वाह!!!!
    बहुत ही चिंतनपरक सृजन
    वाकई समय सदमें में है और नादानी सबसे ज्यादा समझदार।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय सुधा दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर स्नेह

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  5. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(14-12-21) को "काशी"(चर्चा अंक428)पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. आभारी हूँ आदरणीय कामिनी जी मंच पर स्थान देने हेतु।
      सादर

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  6. वाह! बहुत ही बेहतरीन और सरहानीय!
    काश कि मैं भी एक दिन ऐसा लिख पाऊँ!

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    1. आभारी हूँ प्रिय मनीषा जी अत्यंत हर्ष हुआ आपकी स्नेह भरी प्रतिक्रिया से।
      आप एक दिन मुझ से भी बेहतर लिखोगे।
      बहुत सारा स्नेह

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  7. हृदय स्पर्शी रचना

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया।
      सादर

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  8. अति उत्तम अभिव्यक्ति

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    1. आभारी हूँ आदरणीय अनीता दी जी।
      सादर

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  9. Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया।
      सादर

      Delete
  10. "कहा था ना! खुला मत छोड़ो स्वार्थ को, निगल गया विवेक को!”

    कहते हुए धैर्य नज़रें झुकाए चला जाता है।

    ”परंतु ज्वर तो समय के है…!"

    असाधारण सोच, अभिनव प्रयोग बहुत सटीक हृदय को आलोडित करता सृजन।

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    Replies
    1. अत्यंत हर्ष हुआ दी आपकी प्रतिक्रिया मिली सृजन सार्थक हुआ। स्नेह आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर स्नेह

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  11. कमाल की अभिव्यक्ति है।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय उर्मिला दी जी आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा आशीर्वाद बनाए रखे।
      सादर

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  12. वाह बहुत बढ़िया, चिंतनपूर्ण भी । सुंदर सारगर्भित सृजन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं ।

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    1. आभारी हूँ आदरणीय जिज्ञासा दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
      सादर

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