"अंकल प्लीज़ साइड में ही रहें आप आपके कपडों से स्मैल आ रही।”
बीस-बाईस साल की युवती ने मुँह बनाते हुए नाक को सिकोड़ते हुए।
अभी-अभी मेट्रो में सवार हुए सत्तर-पचहत्तर साल के बुज़ुर्ग लुहार से कहती है।
उसके कपड़े मैले-कुचैले,चेहरे और हाथों पर धूप-मिट्टी ने मिलकर एक परत बनाई हुई थी परंतु बड़ी-बड़ी मूछों में ताव अभी भी था। उसके दोनों कंधों पर लोहे के कुछ बर्तन टंगे थे एक हाथ से मेट्रो में सपोर्ट को पकड़े हुए और दूसरे हाथ में भारी सामान थाम रखा था।जिसे न जाने क्यों वह नीचे नहीं टिकाना चाहता था। लड़की ने जैसे ही उससे कहा वह स्वयं को असहज महसूस करने लगा। चेहरे पर बेचैनी के भाव उभर आए। सहारे की तलाश में वह बुज़ुर्ग इधर-उधर आँखें घुमाने लगा। हर कोई उससे दूरी बनाना चाहता था।
”मैम प्लीज़ आप मेरी सीट पर...।”
पास ही की सीट पर बैठे एक हेंडस्म नौजवान ने हाथ का इशारा किया और लड़की को अपनी सीट दी,हल्की मुस्कान के साथ दोनों ने एक-दूसरे का स्वागत किया। लड़की अब सहज अवस्था में थी। सीट मिलते ही वह अपने आपको औरों की तुलना में बेहतर समझने लगी।
अभी भी बुज़ुर्ग असहज था। उसकी आँखों में बेचैनी, क़दम कुछ लड़खड़ाए हुए से...।
”प्लीज़ टेक सीट।”
तीन-चार सीट दूर बैठे एक विदेशी टूरिस्ट की आवाज़ थी।
उसने उस बुज़ुर्ग का सामान थामते हुए उसे अपनी सीट पर बैठने का आग्रह किया।
जिन यात्रियों की आँखें इस घटनाक्रम पर टिकी हुईं थीं एक पल के लिए उनकी पलकें लजा गईं।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २९ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत शुक्रिया मंच पर लघुकथा साँझा करने हेतु।
Deleteसादर
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 29-01-2021) को
"जन-जन के उन्नायक"(चर्चा अंक- 3961) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
सादर आभार मीना दी लघुकथा को मंच प्रदान करने हेतु।
Deleteसादर
मार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसादर आभार सर।
Deleteलजानी ही चाहिए । हम विदेशियों की नक़ल कर सकते हैं या उनका उपहास कर सकते हैं; उनसे कुछ सीखने की नहीं सोच सकते । बहुत अच्छी पोस्ट है यह आपकी अनीता जी ।
ReplyDeleteसादर आभार सर सही कहा मानवता की हत्या आम हो गई है। स्वयं सिद्धांता सर्व परी है आज के समय में।
Deleteसादर
बहुत खूब ...हमें अपने भीतर देखने को विवाश करती रचना...वाह अनीता जी
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया दी मेरे द्वारा कल्पना की क़लम से बाँधी लघुकथा तारीफ़ पर सवार हुई।
Deleteसादर
सोचने को विवश करती सुंदर रचना, अनिता दी।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया दी
Deleteयथार्थ का चित्रण किया है आपने अनीता जी, कई बार ऐसे दृश्य दिख जाते हैं और हम उसे अनदेखा कर देते हैं..हमें अपने अंदर झांकने को विवश करती हुई रचना..
ReplyDeleteसही कहा दी मैंने भी काफ़ी बार महसूस किया है।सोचा क्यों न कुछ लिखा जाए इस पर।
Deleteसादर
खुशी हुई कि कुछ आंखों में इतनी भी लज्जा बची हुई है । वर्ना ... । प्रभावी अंदाज ।
ReplyDeleteआदरणीय दी यह लज्जा मेरी कल्पना की है यथार्थ में लोगो को कहाँ लज्जा आती है। मुर्दो पर पैर उठाकर चलने वाले लोग है।
Deleteसादर
यथार्थ का चित्रण करती हुई अर्थपूर्ण रचना, दुःख होता है कि भारतीय समाज में श्रेणी भेद की खाई इतनी गहरी होती जा रही है, और लोग तेज़ी से संस्कार भी भूलते जा रहे हैं, उच्च शिक्षा लेने से क्या फ़ायदा अगर हम मानवीय मूल्यों को भूल जाएं और एक विदेशी हमें प्रेरणा दे - - यही विश्व गुरु होने के उदहारण हैं कदाचित - - नमन सह।
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया हमेशा ही मेरा उत्साहवर्धन करती है सर।
Deleteसही कहा सर भेद-भाव की खाई बहुत गहरी होती जा रही है।बस शालीनता को दिखावा जड़ा जाता है।एक कॉमन सी समस्या है जिसे शब्द देने का प्रयास था।
सादर
वाह
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
कर्म से ज्यादा शक्ल सूरत की अहमियत हो गई है, जिस मिट्टी के अनाज को खाकर जिंदा रहते है,उसी से घृणा क्यों , सारे साधन यही मिट्टी जुटाती है , इसका मान, सम्मान करने की जगह इससे ऐसा बर्ताव , ये वही कर सकते है, मेहनत की कीमत को नही समझते है, वो विदेशी भी शर्मिंदा होगा हमारी ऐसी सोच पर, क्योंकि हम तो अपनी हरकतो पर शर्मिंदा होते नही , बहुत ही बढ़िया, समाज का आईना है, शुभप्रभात
ReplyDeleteआदरणीय ज्योति बहन आपकी प्रतिक्रिया अनमोल है। बहुत कुछ है जो घटित हो जाता है परंतु निग़ाह से वंचित रह जाती है।समाज का दोहरा रव्या बड़ा विचारणीय है।आज को देखते भविष्य की फ़िक़्र होती है कि कैसे समाज बच्चों को सौंप रहे है?
Deleteसादर
बहुत ही सुंदर सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर।
Deleteसादर