विजया की दादी माँ ने अलाव में कुछ और कंडे डालते हुए कहा।
”अब भगीरथ की दोनों बहुओं को ही देख लो, छोटीवाली तो पूरे गाँव पर भारी है। शदी-विवाह में सबसे आगे रहती है। मजाल जो उसकी ज़बान से एक भी गीत छूट जाए।”
विजया की दादी अलाव से कुछ दूर खिसकती हुई उसके दादाजी से कहती है।
”अरे! क्यों उनके पीछे लगी रहती है, सीख जाएँगीं धीरे-धीरे।”
और पास खड़ी विजया को वो अपनी गोद में बिठाते है।
”अब और कब सीखेंगीं, कल की ही बात कहूँ; बड़ीवाली से कहा कोठरी से जेवड़ी लाने को, वहाँ बूत बनी खड़ी रही जाने क्या मँगवा लिया हो? इतनी भी समझ नहीं है थारी बीनणियाँ में।”
बहुओं की खीझ लकड़ियों पर उतारते हुए,अंदर-ही अंदर टूट रही होती है।
”आप क्या जानो मेरे मन की पीड़ा दुनिया की बहुएँ इतनी टंच होवें कि सास-ससुर सुख से मर सकें और म्हारे माथे पर ये दोनों एक गूँगी, एक बहरी।”
”ठीक से समझाया करो इन्हें , आधी-अधूरी बात बोलती हो तुम।"
दादाजी विजया से पानी का गिलास मँगवाते हुए कहते और वह दौड़ती हुई अंदर गई।
”अब पूजा-पाठ भी मैं ही सिखाऊँ? उनके माँ-बाप ने कुछ न सिखाया । म्हारा भी कर्म फूटेड़ा था जो ये दोनों मिली।”
विजया की दादी की चिंताएँ अब आग की लपटों-सी दहकती दिखीं।
”अम्मा मैं अच्छे से सभी गीत सीखूँगी,पूजा भी अच्छे से किया करुँगी और गाय को चारा भी डालूँगी।”
विजया ने दादाजी को पानी का गिलास थमाते हुए कहा।
”न री लाडो! बेटियाँ तो घर में चहकतीं ही अच्छी लगती, मैं तो बहुओं की बात कहूँ तू तो बड़ी हो कलेक्टर बनना।”
दादीजी ने विजया को सीने से लगा लिया।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (27-01-2021) को "गणतंत्रपर्व का हर्ष और विषाद" (चर्चा अंक-3959) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत शुक्रिया सर चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
आंचलिक परिवेश के ताने-बाने पर रचित हृदयस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteदिल से आभार आदरणीय दी मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर।
Deleteसादर
मन को छू लेने वाली रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर।
Deleteसादर
दोहरा मापदंड।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लघुकथा।
दोहरी मानसिकता पर बहुत सुंदर सटीक लेखन।
बहुत बहुत बधाई।
दिल से आभार आदरणीय दी।
Deleteसादर
सामयिक, सटीक चित्र उकेरती रचना , बधाई
ReplyDeleteसहृदय आभार आदरणीय दी मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कहती कथा.
ReplyDeleteजो आज हमारी बेटी है, वो ही कल किसी की बहू बनेगी.
सादर आभार आदरणीय नूपुर दी मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना प्रिय अनीता जी, दोहरा मापदंड हमेशा स्त्री को व्यथित करता रहा है..सारगर्भित विषय उठाने के लिए आपको बहुत बधाई..
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय दी जिज्ञासा दी मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
बहू मायके से सब सीख कर आये और आते ही ससुराल में सारा घर सम्भाले...परन्तु बेटी कलक्टर बने...इसी दोहरी मानसिकता के चलते सास कभी माँ नहीं बन पायी और बहु से बेटी सदृश बनने की उम्मीद...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सार्थक लघुकथा।
सादर आभार आदरणीय दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
बहुत बढ़िया, बहू और बेटी के अंतर को दिखाती सुंदर लघुकथा
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
Deleteसादर
वाह
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर।
Deleteसादर