वहीं सड़क किनारे लाचारी पेड़ की छाँव में बैठी उन्नति से हाथ मिलाने की चाह में टूटती रहती है।
गाँव और हाइवे का फ़ासला ज़्यादा नहीं है परंतु अंतर बहुत है।
हाइवे पर जहाँ आलीशान गाड़ियाँ दौड़ती हैं वहीं गाँव में ऊँट-गाडियों की मद्धिम चाल दिखती है।
हाइवे से इतर, उन्नति गाँव में फैलना चाहती है जैसे ही ऊँट-गाड़ी गाँव की तरफ़ रुख़ करतीं है उन्नति उन पर सवार होती है।
कभी ऊँट की थकान बन गिरती है, कभी ऊँट को हाँकने की ख़ुशी बन दौड़ती है तो कभी आक्रोश बन आग बबूला होती है। अगर जगह न भी मिले तब वह चिपक जाती है ऊँट गाड़ी के टायर से मिट्टी की गठान बन।
कभी-कभी थक-हारकर वहीं पेड़ की छाँव में बैठ जाती है। हाइवे को देखती है,देखती है जड़ता में लीन ज़िंदगियों की रफ़्तार।
ढलते सूरज का आसरा लिए कुछ क़दम बढ़ाती है उन्नति गाँव की उन औरतों के संग जो अभी-अभी उतरीं हैं तेज़ रफ़्तार से चलने वाली ज़िंदगियों के साथ, उन्नति सवार होती है उनकी हँसी की खनक पर, सुर्ख़ रंग के चूड़े के सुर्ख़ रंग पर, क़दमों की गति पर, कभी झाँकती है ओढ़नी के झीनेपन से, जिसे उन औरतों ने छिपाया है थेले में सबकी निगाह से सबसे नीचे,कभी-कभी सवार होती है वह उन औरतों के हृदय पर विद्रोही बन जैसे ही गाँव में प्रवेश करती हैं वे औरतें उसे छिटक देतीं हैं उसे स्वयं से परे मिट्टी के उस टीले पर,पेड़ों के उस झुरमुट में। कई सदियाँ बीत गईं, उन्नति इंतजार में है एक विद्रोही स्त्री के जिसके सहारे वह पा सके स्थान उस गाँव में।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
अति सुन्दर.. शब्द शक्तियों का अद्भुत प्रयोग ।
ReplyDeleteआभारी हूँ मीना दी..सृजन सार्थक हुआ।
Deleteसादर
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज शनिवार 12 दिसंबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप सादर आमंत्रित हैं आइएगा....धन्यवाद! ,
बहुत बहुत शुक्रिया श्वेता दी सांध्य दैनिक पर स्थान देने हेतु।
Deleteसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-12-2020) को "मैंने प्यार किया है" (चर्चा अंक- 3914) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत शुक्रिया सर चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
Deleteबड़ा गम्भीर प्रश्न उथया है तुमने अनीता !
ReplyDeleteपुराना तो कहीं भी बचा नहीं रह सकता. शहरों की तरह गाँवों का स्वरुप भी बदलेगा लेकिन गाँवों में और शहरों में अंतर तो रहेगा ही.
गाँव से शहर की ओर पलायन तो नए ज़माने का चलन है और इसे कोई चाह कर भी रोक नहें सकता.
हाँ, सरकार को और समाज को यह कोशिश करनी चाहिए कि गाँव में भी बुनियादी सुविधाएं मिलें और रोज़गार के अवसर भी बढ़ें.
आभारी हूँ सर आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया मिली सृजन सार्थक हुआ। आपका ब्लॉग पर आना ही संबल है मेरा...
Deleteआशीर्वाद बनाए रखे।
सादर
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया सर।
Delete
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
बहुत बहुत शुक्रिया सर ।
Deleteगूढ़ प्रश्नों के साथ बढ़िया व्यंग ...।
ReplyDeleteदिल से आभार..
Deleteसादर
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी बहुत बहुत शुक्रिया।
Deleteउम्दा रचना
ReplyDeleteआभारी हूँ सर।
Deleteऐसी उन्नति के व्यूह मैं फँसकर बुद्धि को बैल होना ही है । अत्यंत प्रभावी लेखन ।
ReplyDeleteदिल से आभार आपके आने से सृजन सार्थक हुआ।
Deleteसादर
तरक्की के नाम पर या तो ग्रामीण नौजवान और किशोर शहरों को भाग रहे हैं, या फिर किसी दिमाग वाले के चक्कर में फस शहर ही गाँव में लाने की लालसा में अपना सब कुछ दांव पर लगा रहे हैं, फल वहीं "ढ़ाक के तीन पात" "न घर के न घाट के" महत्त्वाकांक्षाओं में फसा अनपढ़ या कम पढ़ा दिमाग संसाधनों की चमक दमक में ऐसा फंसता है कि सच घाणी के बैल जैसी गति होती है।
ReplyDeleteगहन वैचारिक दृष्टि,सटीक वर्णन किया है आपने ग्रामीण परिवेश और हाईवे का जो खाका खींचा है वो अप्रतिम है अद्भुत है।
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति ।
दिल से आभार प्रिय दी व्यग्य का मर्म स्पष्ट करती सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु। आशीर्वाद बनाए रखे।
Deleteसादर
बहुत उम्दा लिखा है. उन्नति की गाड़ी यूँ ही गाँव कस्बों और शहर में घूमती है, पर उन्नति है कि अपनी ही गाड़ी के पहिए तले कुचली हुई मिलती है. बहुत गंभीर विषय पर बहुत सहज लेखन. बधाई.
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय दी मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
बैल बुद्धि ने कहा- "उन्नति है!"शीर्षक ही अपने आप में सम्पूर्ण लेख का सार व्यक्त करता अद्भभुद व्यंग है।बहुत ही लाजवाब लिखा है आपने.. ग्रामीण परिदृश्य का शानदार खाका खींचा है उन्नति और लाचारी को परखती बुद्धि अन्त में बैल बुद्धि..बहुत ही लाजवाब ...।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आदरणीय सुधा दी।
Deleteमनोबल बढ़ाने हेतु।
सादर
आपके आलेख में भारतीय ग्रामीणों का भोगा हुआ यथार्थ है । स्वयं एक राजस्थानी होने के कारण मैं इसमें प्रयुक्त राजस्थानी मिट्टी से जुड़े बिम्बों को अनुभूत कर सकता हूँ । इतनी अच्छी रचना के लिए अभिनन्दन आपका ।
ReplyDeleteआभारी हूँ सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
Deleteसादर
देश के सभी गाँव का कुशलता से सफल चित्रकारी
ReplyDeleteउन्नति लीलती अपनापन खलती है
दिल से आभार दी मेरी चित्रकारी आपको पसंद आई।
Deleteसादर