शब्दजाल में उलझे भाव
"चाय पूछे न पानी ऊपर से चिलचिलाती धूप तू ही बता महतो यह कैसी मीटिंग?"
रघुवीर अपने पास बैठे व्यक्ति से पसीना पोंछते हुए कहता है।
"अरे! काका ठहरो, कुछ बड़े नेता आने वाले हैं आज।
शहर में आवारा पशुओं पर हो रहे अत्याचार को देखते हुए जागरुकता अभियान पर मीटिंग है।"
महतो अपने सफ़ेद कुर्ते की सलवटें निकालता हुआ कुछ अकड़कर कहता है।
"बात तो ठीक ही कहते हैं नेता लोग, हम जैसे अनपढ़ों की बुद्धि में बैठती कहाँ है उनके जैसी राजनीति।"
रघुवीर मुँह पर हाथ फेरता इधर-उधर देखते हुए कहता है।
"काका तुम कुछ समझो न समझो बस गर्दन को इस तरह घुमाना कि तुमसे समझदार कोई दूसरा व्यक्ति नहीं।"
महतो अपने साथ लाए पाँच-दस सदस्यों को धूप में और अधिक देर तक टिके रहने के लिए हिम्मत बँधाता है।
"बात तो सौ टका खरी कही तूने महतो,भला गर्दन घुमाने में हमारा क्या जाता है।"
पास बैठे एक व्यक्ति ने ठहाके के साथ महतो का समर्थन करते हुए कहा।
"भाई ये नेता और मीडिया वाले पता नहीं क्या खाते हैं?
आँखों के सामने हो रहे कुकृत्य पर मन द्रवित नहीं होता, इनके कहे शब्दों से दस दिन तक दिमाग़ ठनता है,
मुझ जैसा अनपढ़ भी विचार करने बैठ जाता है इनके कहे शब्दजाल पर।"
रघुवीर चारों तरफ़ निगाह दौड़ाते हुए वहाँ से निकलने की कोई जुगत लगाता है हुक्के चिलम के बिना वह ज़्यादा देर ठहर नहीं सकता।
"अरे! भाई मैं तो चला तेरे नेता लोग पता नहीं आएँगे कि नहीं परंतु तेरी काकी जरुर आ जाएगी खरी-खोटी सुनाती हुई।"
रघुवीर वहाँ से खिसक लेता है।
"डेढ़ सौ रुपए की सब्ज़ी ख़रीदी...धनियाँ, मिर्ची डालते हुए भी नाटक!
घोर कलयुग...! इंसान ही इंसान को खाएगा!"
दोनों हाथों में सब्ज़ी से भरे पॉलीथिन के बैग थामें बड़बड़ाते हुए रघुवीर घर पर आता है।
"यही जगह मिली थी बैठने के लिए पूरे जहान में तुझे,
दिनभर डोलती है पॉलीथिन चबाती हुए बैठेगी आख़िर मेरी दहलीज़ पर,
गायों की हालत दिन व दिन बद से बदतर होती जा रही है।"
रघुवीर गाय को डंडा मारते हुए दहलीज़ से हटाता है।
"बालों के साथ-साथ बुद्धि भी झड़ गई क्या आपकी, गौमाता पर कोई ऐसे झुंझलाता है ?"
सब्ज़ी से भरा पॉलीथिन का बैग हाथ में लेते हुए रघुवीर की पत्नी कहती है।
"अरे! बहू से कहो रोटी हिसाब से बनाए, इस तरह आवारा पशुओं के सामने फेंकने से क्या फ़ाएदा।"
रघुवीर पत्थर पर पड़ी रोटियों को देखते हुए कहता है।
"आप ही कहो, आपने क्या मुँह सिल रखा है?"
पति-पत्नी दोनों बातों में उलझते हुए घर के अंदर जाते हैं।
"अरे! बेटा एक कप कड़क अदरक की चाय पिला दे।"
कहते हुए रघुवीर कुर्सी पर बैठता है और टीवी चलाता है।
"अरे! क्या हो गया है देश दुनिया को पशुओ पर निर्मम अत्याचार!"
पीड़ा का भाव चेहरे पर लिए रघुवीर एक टक टीवी स्क्रीन पर नज़र गढ़ाए हुए कहता है।
-अनीता सैनी 'दीप्ति'
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2020) को 'बिगड़ गया अनुपात' (चर्चा अंक 3726) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत खूब
ReplyDeleteकथनी और करनी का फर्क
ReplyDeleteबहुत खूब
बहुत खूब।
ReplyDeleteअच्छी कथा।