जैसे धूप से झुलसता आसमान धरती के लिए छाँव तलाशता दौड़ता हो वैसे ही सुमन दौड़कर आई और हाथ में टूटी चप्पल लिए सुरभि के सामने खड़ी हो गई।
"मुझे पैसे नहीं दीदी काम चाहिए।"
सुमन अपनी टूटी चप्पल का फीता अँगूठे से दबाते हुए झट से ठीक करती है। लुगड़ी से हाथ पोंछती हुई सफ़ाई का प्रमाण-पत्र देते हुए कहती है -
"कल ही ख़रीदी थी मैंने मेले से पूरे अस्सी रुपए की हैं।
अच्छी हैं न...,चलताऊ नहीं हैं। फैंसी हैं न..., कम ही चलतीं हैं।"
सुमन ने अपनी टूटी चप्पल की ख़ामी फट से छिपा ली।
सुमन एक सांस में कितना कुछ कह गई सुरभि उसका चेहरा ताकती रही।
"ऐसे वक़्त में मैं तुझे क्या काम दे सकती हूँ तुम भी कम ही बाहर निकला करो।"
कहते हुए सुरभि आगे क़दम बढ़ाती है।
"आपकी पड़ोसन ने कहा था गेहूँ साफ़ करवाने हैं आपको।"
तेज़ आवाज़ में पुकारते हुए सुमन ने आत्मविश्वास के साथ लंबी उसाँस भरी।
"वो तो है परंतु में पाँच सौ रुपये ही दूँगी।"
सुरभि विनम्रता से कहते हुए,पलटकर वहीं खड़ी हो गई।
"नहीं दीदी मैं पूरे तीन सौ रुपये लूँगी दो दिन लगेंगे दो बोरी बीनने में। "
सुमन ने चेहरा ऐसे बनाया जैसे उससे समझदार इस धरती पर और कोई नहीं।
"तुम्हें पता है तीन सौ रुपये कितने होते हैं?"
सुरभि ने उसकी मासूमियत को एक पल में छलना चाहा।
"क्यों नहीं जानती जब मेरा मर्द कार्तिक मास में ले गया था मुझे खेत पर काम करवाने तब दो महीने बाद मायके छोड़ गया था पूरे तीन सौ रुपये थमाये थे उसने मेरे हाथ में।"
उसके चेहरे पर सुकून था। भावविभोर हो गई थी वह बीते समय को समेटते हुए। उसके पास सुनाने को बहुत कुछ था परंतु सुननेवाला कोई नहीं था।
"तब तुम मज़दूरी क्यों करती हो पति है, घर है और ज़मीन भी है। अपने खेत पर काम करो यों क्यों घूमती हो?"
सुरभि ने उसे फटकारते हुए, कुछ समझाते हुए कहा।
"वो छोटी बहू की चलती है न घर में। गाय का गोबर डालती हूँ तब तसला छीन लेती है। रोटी बनाती हूँ तब बेलन छीन लेती है। सास-ससुर के चहेते बेटे-बहू है वो मान-सम्मान भी उन्हीं के हिस्से में हैं। कहते हैं तेरा ख़सम कमाता नहीं है।"
कहते-कहते उसका दर्द आँखों से छलक पड़ा।
सतरह-अठारह साल की बच्ची पीड़ा ने जैसे उसका गला ही दबा दिया हो। आज उसके हृदय पर सुकून था। किसी ने उससे इतने स्नेह से बात की ही नहीं ,
ज़िंदगी से फटकार अपनों से अकाल के जैसी मार मिली थी उसे।
"अब कभी नहीं जाओगी ससुराल?"
चलते-चलते सुरभि ने एक प्रश्न और उसके हाथ में थमा दिया।
"क्यों न जाऊँ ससुराल साल में दो बार जाती हूँ और वह मुझे लेने भी आता है जब खेत पर खलिहान का काम ज़्याद होता है तब। मेरे सिवा उसका हाथ बँटानेवाला और है ही कौन है? मेरा मर्द बहुत भोला है। ससुराल वालों ने कितनी बार कहा सुमन को छोड़ दे,चप्पल तक ठीक से नहीं पहननी आती उसे परंतु उसने मेरा साथ नहीं छोड़ा। जैसे-तैसे करके समय निकल जाए फिर आएगा वह मुझे लेने, मैं प्रतीक्षा में हूँ उसकी।"
सुमन कल आने के वादे के साथ उम्मीद समेटे आँचल में वहाँ से चली गई और छोड़ गई एक गहरी कसक।
सादर आभार आदरणीय मीना दीदी मनोबल बढ़ाती सुंदर प्रतिक्रिया हेतु.सही कहा आपने नारी के नाज़ुक भावों से साथ अपने की कुछ असामाजिक तत्त्व होते है जो खेलते है जो जिम्मेदारी के नाम से उसका दिमाग़ हेंग करदेते है वह अपनी सोचने समझने की शक्ति नष्टकर देते है.हल्का सा सहारा मिलते ही सर रख देती है. तहे दिल से आभार दीदी अभिव्यक्ति की सराहना हेतु . सादर
ग्रामीण लोगों की और निरक्षरता और भोलेपन पर आधारित लघुकथा एक टीस उत्पन्न करने में पूर्णतः सक्षम है...साथ ही नारी के अपने पति के प्रति आस्था और विश्वास के साथ उसका इन्तज़ार और स्वयं को समर्पित करना भी बहुत ही हृदयस्पर्शी है लाजवाब लघुकथा लेखन की बहुत बहुत बधाई आपको..।
सादर आभार आदरणीय दीदी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .सही कहा आपने दीदी आज भी गाँव की लड़कियाँ खेत और अपने पालतू पशुओं तक सिमटकर रह गई.कुछएक के पास दिमाग़ होतो है वह उन पर अपनी हुकूमत जमा लेती है.दिमाग़ को इतना पज़ल किया जाता है समझ नहीं पाती हो क्या रहा है उनके साथ कुछ दिनों पहले की बात है एक औरत खेत में अपना चार पाँच महीने का बच्चा भूल गई. काफ़ी तलाशने पर रोने की आवाज़ से पता चला.कहानी बहुत लंबी है परंतु विषय विचारणीय है इतनी टेंसन की हमें होस ही नहीं रहता. बहुत बहुत शुक्रिया दीदी साथ देने हेतु .
हम्म्म सब कुछ समेटे है अपने आप में ये लघुकथा गांवों से आक्र काम करने वालों की दशा , बिहटा स्त्रियों की दिल की बात , अब भी घरों में िस्त्रियों में होती अनबन जिससे रिश्ते कड़वे होते जाते हैं बहुत गहन सोच से लिखी कथा लाजवाब लघुकथा लेखन की बहुत बहुत बधाई आपको.
सादर आभार आदरणीय जोया जी लघुकथा का मर्म समझने हेतु.नारी की समाज में खंडित स्थिति है कहने को शब्दों में महानता दिखा सकते है लेकिन यथार्थ मनः स्थति में सभी के दबा है.विचारों का दायरा संकुचित हो चला है . आपकी प्रतिक्रिया से संबल मिला आते रहे ब्लॉग पर . सादर
ग्रामीण जीवन की मासूमियत और भोलेपन के साथ नारी की दयनीय स्थिति को हृदयस्पर्शी भावों में गूंथा है आपकी लेखनी ने । बहुत सुन्दर लघुकथा ।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय मीना दीदी मनोबल बढ़ाती सुंदर प्रतिक्रिया हेतु.सही कहा आपने नारी के नाज़ुक भावों से साथ अपने की कुछ असामाजिक तत्त्व होते है जो खेलते है जो जिम्मेदारी के नाम से उसका दिमाग़ हेंग करदेते है वह अपनी सोचने समझने की शक्ति नष्टकर देते है.हल्का सा सहारा मिलते ही सर रख देती है.
Deleteतहे दिल से आभार दीदी अभिव्यक्ति की सराहना हेतु .
सादर
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteयोग दिवस और पितृ दिवस की बधाई हो।
सादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .
Deleteसादर
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 22 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय दीदी पाँच लिंकों पर स्थान देने हेतु .
Deleteसादर
ग्रामीण लोगों की और निरक्षरता और भोलेपन पर आधारित लघुकथा एक टीस उत्पन्न करने में पूर्णतः सक्षम है...साथ ही नारी के अपने पति के प्रति आस्था और विश्वास के साथ उसका इन्तज़ार और स्वयं को समर्पित करना भी बहुत ही हृदयस्पर्शी है
ReplyDeleteलाजवाब लघुकथा लेखन की बहुत बहुत बधाई आपको..।
सादर आभार आदरणीय दीदी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .सही कहा आपने दीदी आज भी गाँव की लड़कियाँ खेत और अपने पालतू पशुओं तक सिमटकर रह गई.कुछएक के पास दिमाग़ होतो है वह उन पर अपनी हुकूमत जमा लेती है.दिमाग़ को इतना पज़ल किया जाता है समझ नहीं पाती हो क्या रहा है उनके साथ कुछ दिनों पहले की बात है एक औरत खेत में अपना चार पाँच महीने का बच्चा भूल गई.
Deleteकाफ़ी तलाशने पर रोने की आवाज़ से पता चला.कहानी बहुत लंबी है परंतु विषय विचारणीय है इतनी टेंसन की हमें होस ही नहीं रहता.
बहुत बहुत शुक्रिया दीदी साथ देने हेतु .
बहुत सुंदर और मार्मिक कहानी सखी।बहुत-बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteसादर आभार सुजाता बहन मनोबल बढ़ाने हेतु .
Deleteसादर
सुन्दर कहानी समझ नहीं आता ऐसे लोगों को सरल कहा जाए या आजकल की काईंया जिंदगी में मूर्ख। किन्तु फिर भी ये चरित्र बहुत कुछ सिखाते हैं। जय हो।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु .
Deleteसादर
हम्म्म सब कुछ समेटे है अपने आप में ये लघुकथा गांवों से आक्र काम करने वालों की दशा , बिहटा स्त्रियों की दिल की बात , अब भी घरों में िस्त्रियों में होती अनबन जिससे रिश्ते कड़वे होते जाते हैं
ReplyDeleteबहुत गहन सोच से लिखी कथा
लाजवाब लघुकथा लेखन की बहुत बहुत बधाई आपको.
सादर आभार आदरणीय जोया जी लघुकथा का मर्म समझने हेतु.नारी की समाज में खंडित स्थिति है कहने को शब्दों में महानता दिखा सकते है लेकिन यथार्थ मनः स्थति में सभी के दबा है.विचारों का दायरा संकुचित हो चला है .
Deleteआपकी प्रतिक्रिया से संबल मिला आते रहे ब्लॉग पर .
सादर