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Sunday 23 February 2020

अतिथि देवो भव:


"सुबह-सुबह क्यों मुँह गुब्बारे-सा फुला रखा है?"
रामू चिलम पर पतँगी रखता हुआ सीता से कहता है। 
"क्योंकि तुम्हारी लॉटरी खुल गयी है और मैं महारानी की तरह ग़ुरूर पालने का प्रयास कर रही हूँ।"
सीता घर में झाड़ू लगाती हुई झुँझलाती है। 
"अरे तू फ़िक्र क्यों करती है,  देखना एक दिन मैं तेरे लिये  झाड़ू भी ऐसी लेकर आऊँगा कि वह अपने आप ही घर साफ़ करेगी। तू यह कांस-बाँस की झाड़ू भूल जा, देख आज मेरा दोस्त आने वाला है ज़रा खाना अच्छा बना लेना और इस चारपाई पर अच्छी-सी चादर डाल दे।"

रामू अपनी पत्नी को अपनी समझ से समझाते हुए  चिलम का सुट्टा भरता है। 
"तुम थकते नहीं हो झूठ का स्वाँग गढ़ते हुए,  क्यों करते हो दिखावे का ढकोसला?"
सीता रामू के पास बैठकर  चूल्हे की आग के सामने ठंड से ठिठुरते हाथों को गर्म करने लगती है। 
"तू समझती क्यों नहीं वे  बहुत पैसे वाले लोग हैं अगर दिखावा नहीं करेंगे तो वे  अपने बराबर में नहीं बैठाएँगे और देख एक अच्छी-सी लुगड़ी ओढ़ लेना नहीं तो कहेगा अपनी पत्नी को ढंग के कपड़े नहीं पहना सकता।"
रामू अपनी पत्नी को समझाता हुआ घर में रखा कुछ टूटा-फूटा सामान चारपाई के नीचे छिपाता है। 
"बस-बस रहने भी दो इतने बादशाह भी मत बनो।"
सीता रसोई में कुछ काम करने लगती है कुछ देर बाद दरवाज़े पर किसी के साथ रामू की बातचीत करने की आवाज़ आती है साथ ही बग़ल वाले घर से ज़ोरों से गाना बजता है 'जय-जय करा स्वामी देना साथ हमारा। रामू की पत्नी को लगता है जैसे अतिथि सत्कार में चार चाँद लग गये हों। 
"अरे!वाह!रामू तू तो बड़ा पैसे वाला हो गया तेरे तो चाल-ढाल ही बदल गये।"
रामू का दोस्त विनोद रामू  से कहते हुए खिसियाता है। 
"अरे! कहाँ भाई साहब इनकी तो आदत है। "
सीता अपने आप को सँभालती हुई अपनी लाचारी दर्शाती है। "
"अरे! कुछ चाय-पानी का बंदोबस्तकर यहाँ खड़ी बातें बना रही है। "
रामू अपनी पत्नी को हल्के ढंग से फटकारता है। "
"नहीं!नहीं!! इसकी आवश्यकता नहीं है। "
विनोद रामू की पत्नी से कहता हुआ वहीं चारपाई पर बैठता है। "
"अरे! कुछ खाने-पीने के लिये भी बना,  काफ़ी दिनों बाद आया है मेरा यार। "
रामू अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहता है। "
"अच्छा तो रामू! मैं जो तुझे प्लास्टिक का सामान कम दाम में देता था उसके अब पैसे बढ़ाने पड़ेंगे।कम्पनी में घाटा बढ़ गया यार और तुम्हारी तो अब आर्थिक स्थिति भी ठीक हो गयी है।तुझे कोई परेशानी थोड़ी है। "
विनोद अपनी निगाह घर में चारों तरफ़ दौड़ाता है। "
"अरे! मैं तो सोच रहा था तू और मदद करेगा।"
रामू हक्का-बक्का-सा रह जाता है। 
"अरे! अब तू पहले वाला रामू नहीं रहा।  देख! तू चिलम से हुक़्क़े पर आ गया, पहचान अपने आप को। 
विनोद हुक़्क़े का सुट्टा मारता हुआ कहता है। 
रामू सोच में पड़ गया इस दिखावे के हुक़्क़े के ख़ातिर बीवी-बच्चों की कितनी ही आवश्यकता का गला घोंटा था उसने। 
"अब देख! यार तू मेरे बराबर का हो गया है। अच्छा-ख़ासा कमाने लगा  है। देख! विकसित और विकासशील की यही परिभाषा है। अब तुझे देख लगता तू सक्षम है इस तरह ठाढ़ बाढ़ का जीवन जी रहा है बराबर में बैठना सीख जा,किसी से लेना नहीं देना सीख जा।  
रामू अपने लंगोटिया यार की मतलबी बातें सुन गहरी सोच में पड़ गया और बड़बड़ाने लगा-
"सब मतलब के यार!"
रामू का उत्साह वहीं बिखर-सा गया, वह अपने ही गहरे विचारों के भँवर में डूब गया।  

©अनीता सैनी 

8 comments:

  1. तू चिलम से हुक़्क़े पर आ गया, पहचान अपने आप को।

    भौतिकवाद ने इंसानियत को मार कर वस्तुओं को अहमियत देना सिख दिया है।

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  2. दिखावा और आडंबर ले डूबा. सचमुच यही है आज की परिस्थिति. अच्छी लघुकथा

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  3. ये भी खूब रही ! इसीलिए हमारे पूर्वज कभी भी दिखावे में विश्वास नहीं करते थे।

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  4. वाह!सखी ,बेहतरीन ! दिखावा करने के चक्कर में खुद ही उलझ गए ।

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  5. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(18-02-2020 ) को " अतिथि देवो भवः " (चर्चा अंक - 3622) पर भी होगी

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का

    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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  6. अतिथि देवो भव... विचार हमारी संस्कृति की विशेषता है. भारतीय मनीषा ने अपने विराट विचार से दुनिया को प्रभावित किया है. अतिथि के प्रति सत्कार भाव हो या उदार भाव हम हमेशा उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल करते रहे हैं.
    भारत ने दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्ष का स्वागत करते-करते देश की राजधानी में लाशों का ढेर लगने दिया। जिसने हमें विकाशशील देश की श्रेणी से पदोन्नत करते हुए विकसित देश घोषित करते हुए भारत को अधिक टैक्स चुकाने के लिये मज़बूर किया है ताकि अमेरिका के ख़ज़ाने में और वृद्धि होती रहे.
    एक चालाक व्यापारी से उदार भारत कैसे निबटता है यह तो समय बताएगा किंतु आपकी यह व्यंगात्मक लघुकथा वर्तमान संदर्भों को बख़ूबी अप्रत्यक्ष रूप से समेटती है. भारत में करोड़ों लोग ख़ाली है एक विवादास्पद व्यक्तित्व के लिये पलक पाँवड़े बिछाने के लिये क्योंकि वह किसी का पसंदीदा यार है.
    बहुत सरलता से यह लघुकथा बड़े लक्ष्य को साधती हुई व्यंग्य की शानदर धार पर मित्रता से जुड़े स्वार्थी रिश्तों को कसती हुई यथार्थ से रूबरू कराती है.
    बधाई एवं शुभकामनाएँ.
    लिखते रहिए.

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  7. तुम थकते नहीं हो झूठ का स्वाँग गढ़ते हुए, क्यों करते हो दिखावे का ढकोसला?"
    इसी में दिन कटते हैं और एक दिन देखो तो वहीँ खड़े मिलते हैं
    आजकल ऐसा ही कुछ ज्यादा ही चल रहा है
    बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  8. बहुत सुन्दर।
    घर मे ही रहिए, स्वस्थ रहें।
    कोरोना से बचें।
    भारतीय नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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