मैं मेरे की भावना हो रही है बलवती। अपनी हदों को पार करता मानव स्वभाव अब किसी के चरित्र की हत्या करना या करवाना कलिकाल युग के मानव के लिये आम-सी बात बन गयी है बशर्ते करने और करवाने वाले को मिलना चाहिये एवज़ में एक ख़िताब बड़प्पन का वह भी करुणा भाव से छलकता हुआ क्योंकि उसने भी अपने चरित्र को ताक पर रख की है सामने वाले के चरित्र की हत्या।यही विशेषता रही है ख़ास इस दौर के मानव की, मुख पर शालीनता की लालिमा शब्दों में तर्क का तेज़ परन्तु दुर्भाग्य वह मानसिक और शारीरिक रुप से हो चुका है विकृत। स्थिति यह हो चुकी है कि वह बौखला गया है। घटती उम्र बढ़ती महत्त्वाकाँक्षा में तालमेल बिठाना अब उसके हाथ में नहीं रहा। वह अतीत को देखता है वर्तमान को जीता है और भविष्य को संवारता है। प्रति पल अपने से करता है राजनीति, राजनीतिक अपंगता हर हृदय को अपने आग़ोश में लेने लगी है। इतिहास के तथ्य तलाशते-तलाशते वह उन्हीं किरदारों में अपने आप को देखने लगा। उसी स्थान पर उसी दर्ज़े पर अपने आप को रखने लगा। बिन त्याग और बलिदान के एक पल में अमर होने की प्रवृति परिवेश में पनपने लगी है। सूर्य-सी आभा मुखमंडल पर प्रतिष्ठित छवि चाहता है हर हृदय, यही विडंबना तुषार की बूँदों-सी टपक रही है कलिकाल युग में।
ऐसा ही एक हृदय फिर रहा है मारा-मारा नाम कुछ गुनगुन सामने आया है। समाज से बटोरने सहानुभूति या लिये राजनीति की खड़ग कुछ कहना शायद असंभव-सा प्रतीत हो रहा। इस मोहतरमा ने संजीदगी से टपकाए हैं आँख से आँसू मनगड़ंत कहानी को आपबीती का लिबास पहना वह साबित करना चाहती है कि जब वह सात साल की थी तब उसके साथ अन्याय हुआ था। मोहतरमा को आज अठाईस साल के बाद होश आया कि उस के साथ अन्याय हुआ था वह भी उस साहित्यकार के मरणोपरांत बाईस साल बाद। यह कोरी राजनीति या एक मनगढ़ंत कहानी या एक सोची-समझी साज़िश एक साहित्यकार की चरित्र-हत्या करने की।आज एक वामपंथी साहित्यकार होना गुनाह है या सच की ज़ुबां काटी जा रही ,या उसके लेखन को लज्जित करने का षड़्यंत्र कहूँ,साहित्य पर भी वर्ग विशेष का अपना आधिपत्य है । जो भी है एक विश्वविख्यात साहित्यकार के चरित्र की हत्या करना कहाँ तक जाएज़ है। बाबा नागार्जुन एक जन कवि थे जिन्हें आज तथाकथित साहित्यकारों द्वारा अपमानित किया जा रहा और उनका दोगला रबैया सामने आया है और मोहतरमा आज क्या बताना और दिखाना चाह रही हैं। इस तरह साहित्य में पैर पसारती घटिया राजनीति साहित्य को पतन के कग़ार पर खड़ा करती है। वामपंथ का अनुयायी होने के नाम पर इस तरह ज़लील करना कुछ लोगों की साहित्यिक कुंठा मात्र हो सकती है। आज के क़लमकार अपनी क़लम से गुनगुन के लिये इंसाफ़ की गुहार लगाते नज़र आये, उसके लिये जिसने कभी यथार्थ के धरातल पर अपने क़दम ही नहीं रखे।जो हुआ ही नहीं उसे होने की संज्ञा देना एक अपराध को बढ़ावा देना मात्र है। मोहतरमा के अनुसार जब वह सात साल की थी तब शायद वह साहित्यकार बयासी साल के थे अपने ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव पर वह ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे थे। इस तरह बेबुनियाद शब्दों को ज़िंदगी का सच बताने वालों के ख़िलाफ़ कठोर कारवाही की माँग उठनी चाहिए।
© अनीता सैनी
Kavi Kay kaam Marg darshan Karna hota Jai kyonki Ho hamein nahin dikhta wo kavi divya drishti so pehle hi dekh leta Jai. Good going
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ReplyDeleteअनीता, यह बात अगर 40 साल पुरानी होती तो बाबा नागार्जुन 69 साल के होते तो ऐसे आरोप पर कुछ विश्वास भी कोई कर सकता था लेकिन यह हादसा तो महज़ 28 साल पुराना बताया जा रहा है और आज से 28 साल पहले बाबा नागार्जुन 80-81 साल के थे, चारपाई पर लेटे रहने को मजबूर थे.
ReplyDeleteबहुत दुखद है, किसी दिवंगत के विषय में इस तरह का दुष्प्रचार। आदरणीय गोपेश जी ने एक सशक्त पक्ष रखा है। सूत्रधार को चिंगारी छोड़ पीछे हटने नहीं देश चाहिए अपितु इस प्रकरण में पूरी छानबीन हो । सम सामयिक विषय पर लिखने के लिए साधुवाद।
ReplyDeleteकृपया हटने देना चाहिए पढ़ें
ReplyDeleteघटती उम्र बढ़ती महत्त्वाकाँक्षा में तालमेल बिठाना अब उसके हाथ में नहीं रहा।
ReplyDeleteएकदम सटीक ....समसामयिक लाजवाब लेख लिखा है आपने अनीता जी।
मुझे तो लगता है कि कई औरतेंं को समाज की अति संवेदना का फायदा उठाने पर तुल गयी हैं
समाज में अनेक जगहों पर देखने सुनने को मिल रही हैं ऐसी घटनाएं....
कुछ तो इसी बात पर पुरूषों को धमका भी रही हैं
आदरणीय गोपेश जी के अनुसार बाबा नागार्जुन 81साल के बीमार वृद्ध थे उस समय ...फिर तो ये बहुत ही शर्मनाक वाकया है...।
शानदार समसामयिक लेख के लिए बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
एक जाने-माने साहित्यकार,महान व्यक्तित्व के धनी बाबा नागार्जुन के विषय में इस तरह की बातें करके यह मोहतरमा पता नहीं क्या साबित करना चाहती हैं। बेहद दुखद और शर्मनाक घटना है।
ReplyDeleteसारगर्भित प्रश्न लिए बेहतरीन प्रस्तुति अनीता जी । आदरणीय गोपेश सर , अनुराधा जी , रेणु जी और सुधा जी विचारों से पूर्णतया सहमति ।
ReplyDeleteसूर्य-सी आभा मुखमंडल पर प्रतिष्ठित छवि चाहता है हर हृदय, यही विडंबना तुषार की बूँदों-सी टपक रही है कलिकाल युग में।
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने ,समसामयिक विषय पर सुंदर लेख अनीता जी
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (19-01-2022) को चर्चा मंच "कोहरे की अब दादागीरी" (चर्चा अंक-4314) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
निशब्द!
ReplyDeleteदुःखद
ReplyDeleteबहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि वो व्यक्ति जो वर्षों पहले इस दुनिया को अलविदा कह गया जो आज अपना पक्ष तक रखने के लिए उपस्थित नहीं उसके चरित्र पर इतने दिनों बाद उंगली उठाई जा रही है अभी तक याददाश्त खो गयी थी क्या मोहतरमा की?
ReplyDeleteऐसे लोगों को क्या कहें कुछ समझ नहीं आता ऐसे लोगों संपूर्ण मानवजाति के लिए बहुत ही घातक हैं!
क्या ही कहें....!