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Saturday, 7 December 2019

"पुलिस बनी न्यायधीश"


गत 29 नवंबर को हैदराबाद में हुआ 
महिला चिकित्सक का सामूहिक बलात्कार और जघन्य
 क़त्ल देश को झकझोर गया। कल सुबह ख़बर आयी
 कि पुलिस जब इस केस के चारों आरोपियों को रात 3 बजे 
अपराध स्थल पर घटना के सूत्र एकत्र करने के लिये ले गयी जहाँ पुलिस के अनुसार आरोपियों ने 
उनके हथियार छीनकर पुलिस पर हमला करने की कोशिश की तो पुलिस ने उन्हें गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया।
अब इस काँड पर देश में एक ओर जश्न मनाया जा रहा है, 
मिठाइयाँ बाँटीं जा रही हैं तो दूसरी ओर पुलिस की करतूत पर सख़्त ऐतराज़ भी किया जा रहा है। किसी भी आरोपी को अपराधी न्याय-तंत्र के द्वारा घोषित किया जाता है। 
पुलिस की थ्योरी अक्सर अदालतों में नकार दी जाती है। 
कई बार आरोपी बदल जाते हैं जैसा कि गुरुग्राम (गुड़गाँव )
 के एक निजी विद्यालय में 2017 में 
एक मासूम बालक की गला काटकर निर्मम हत्या कर दी थी
 तब बस कंडक्टर को पुलिस ने षड्यंत्र के तहत आरोपी बनाया जबकि सीबीआई जाँच में असली अपराधी तो
 उस विद्यालय का ही एक किशोर निकला। मुठभेड़ को तर्कसंगत मानना तभी सही होता है जब अपराधी की स्पष्ट पहचान अदालत द्वारा कर ली जाय या सामने वाला सुरक्षा बल पर हमला करने की स्थिति में सक्षम हो। 
यहाँ त्वरित न्याय का सवाल विवादों के घेरे में आ गया है।  
लोकतंत्र में व्यक्ति के अधिकारों की व्याख्या है तो दायित्वों की भी स्पष्ट परिभाषा उल्लेखित है. भारत में ऐसे अनेक प्रकरण हैं सबूत के रूप में जहाँ पुलिस ने निर्दोष लोगों को आरोपी बनाया है. पुलिस जब ख़ुद ही न्यायाधीश बन जाय तो फिर व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न उठने लाज़मी हैं. पुलिस की मनमानी पर नियंत्रण के लिये अनेक स्तरों पर व्यवस्था की गयी है. 
अभी हाल ही में समाचार आया था छत्तीसगढ़ के सारकेगुड़ा में 2012 में हुआ एनकांटर फ़र्ज़ी था. न्यायिक जाँच में स्पष्ट हुआ कि  सुरक्षा बल ने निर्दोष 17 ग्रामीणों को माओवादी बताकर मार डाला जिसमें नाबालिग भी शामिल थे. क्या हमें ऐसी स्वतंत्रता मिली है जिसमें किसी भी निर्दोष नागरिक को भी इस तरह मौत के घाट उतारा जा सकता है, वह भी सरकारी तंत्र की ग़लत मंशा के चलते जो बहुत बड़ी चिंता का विषय है. ऐसे एनकांटर का शिकार अक्सर ग़रीब ही क्यों होते हैं? समाज में अपराधों का ठीकरा हम ग़रीबों के सर ही फोड़ते हैं लेकिन हम विचार करें कि वे इस स्थिति तक पहुँचे कैसे. ज़रुर उनका किसी ने हक़ छीना है. 
क़ानून का ख़ौफ़ होना चाहिए इस बात पर सभी सहमत हैं लेकिन उसका दुरूपयोग नहीं होना चाहिए. 
जिस दिन हैदराबाद की महिला चिकित्सक के साथ दरिंदगी का भयावह समाचार आया उसी दिन उत्तर प्रदेश, झारखंड और गुजरात से भी महिलाओं पर हुए जघन्य अपराध बलात्कार की ख़बरें थीं लेकिन देशभर की जनता का ध्यान केवल एक घटना पर ही क्यों केन्द्रित किया गया? शायद यहाँ भी राजनीति अपनी कुटिल चाल में सफल हो गयी. 

महिला होने के नाते महिलाओं की अस्मिता पर होने वाले हरेक अत्याचार का मुखर विरोध करूँगी किंतु अपनी मुद्दे के विश्लेषण की क्षमता पर कभी क्षुब्ध नहीं हो सकती.

©अनीता सैनी 

5 comments:

  1. अनिता बिटिया आप सवाल उठा रही हो हैदराबाद एनकाउंटर घटना पर मुझे आश्चर्य हो रहा है इस बार मारे गये अपराधीयो के फोटो भी है समाचार पत्रो मे मतलब सालो इंतजार करो हरामियो को जैल मे रखो उनका खर्चा उठाओ फिर फांसी दो ।। बेटा जब तक ऐसे एनकाउंटर दो चार और नही होंगे तब तक अपराधियों के होंसले बुलंद रहेंगे देखा नही जमानत पर छूट कर रेप पीड़िता को जिंदा जला दिया ।। और आप कह रही हो हैदराबाद पुलिस को कानून हाथ मे नही लेना था ।।

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  2. पुलिस को न्यायाधीश नहीं बनना चाहिए. उसे जो कार्य सौंपा गया उसे तो पहले ईमानदारी से कर ले. हड़बड़ी के फ़ैसले समाज में अपेक्षित बदलाव नहीं ला सकते. जो लोग न्याय-व्यवस्था से निराश हैं वे हैदराबाद पुलिस की करतूत से बेहद ख़ुश हैं लेकिन विवेकशील चिंतन यह कहता है कि हैदराबाद पुलिस का यह कृत्य क़ानूनी तौर पर पूरी तरह ग़लत है हालाँकि पीड़िता के प्रति सबकी हमदर्दी है. पुलिस का चरित्र अब तक ऐसे अनेक मामलों में ग़लत इबारत लिखता रहा है अतः ऐसे विषयों की मीमांसा होनी चाहिए ताकि ऐसा अराजक रबैया पुनः न दोहराया जाय.

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    1. आप मुगालते मे है कि इस से अराजकता फैलेगी मगर वो दिन दूर नही जब जन मानस के क्रोध का महासागर ऐक दिन क्रोध की सुनामी लायेगा और उस दिन कोई भी अपराधी जनमानस के क्रोध से कोई नही बच पायेगा

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  3. नमस्ते,
    बात यहाँ क़ानूनी प्रावधानों की है जिनका पालन पुलिस को करना ही होगा. कृपया इस लेख में उद्धरित उदाहरणों से पुलिस, पीड़ित, आरोपी और असली अपराधी के बीच की कड़ी को समझा जाय.
    समाज का आपराधिक चरित्र एनकाउंटर से नहीं बदलता. अनावश्यक हिंसा की वकालत दिमाग़ी फ़ितूर है.बलात्कारी के प्रति किसी को कोई हमदर्दी नहीं है बल्कि एतराज़ इस बात पर है कि आप जैसे लोग पुलिस को मनचीता करने के लिये उकसाने का आधार तैयार कर रहे हैं. समाज का चरित्र बदलने के लिये समस्या की जड़ तक जाना ज़रूरी है.

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (09-12-2019) को "नारी-सम्मान पर डाका ?"(चर्चा अंक-3544) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं…
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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