मेरे हृदय में उमड़ता वात्सल्य-भाव अपनी चरम सीमा लाँघने लगता है जब आठ साल का एक मासूम बच्चा अपना बड़प्पन दिखाते हुए ज़िंदगी से जद्दोजहद कर उसे सँवारने की भरपूर कोशिश करता है और उम्मीद को अपने सीने से लगाये घूमता है। अपने कार्य के प्रति समर्पण भाव दर्शाते हुए उसके पूर्ण होने का दावा करता है। ऐसा ही एक बच्चा था भानु। तीसरी कक्षा का वह छात्र मुझे रिझाने की भरपूर कोशिश करता था। उसके नन्हे ज्ञान-भंडार में भी नहीं थी इतनी शालीनता जितनी वह मुझे दिखाने की कोशिश करता था। उसका शर्मीला शालीन स्वभाव सबको बड़ा प्रिय था। वैसे तो कक्षा के सभी बच्चे मुझे बहुत प्रिय थे परन्तु भानु कुछ अलग ही था। कभी-कभी वह मध्यान्ह-अवकाश का भोजन मेरे साथ समाप्तकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता था। धीरे-धीरे इसी तरह वक़्त अपनी सीढ़ियाँ चढ़ता गया और हम उसके साथ चलते रहे। एकाएक एक दिन पुस्तकालय से काफ़ी शोर-शराबे की आवाज़ आयी। अनायास ही मेरे क़दम उस ओर बढ़ते चले गये। मैं पुस्तकालय के दरवाज़े पर अपना क़दम रखने वाली ही थी की मिस शुक्ला की झिड़कीमिश्रित तल्ख़ आवाज़ आयी-
"मिस नीता!
देखिये! आपके होनहार छात्र का कमाल!
कभी भी गृहकार्य समय पर पूर्ण नहीं मिलता और आज तो कमाल ही हो गया।
महाशय पुस्तक ही भूल गये।
आज इसके माता-पिता को विद्यालय में उपस्थित होने के लिए कहा है।"
मैं कुछ कहने कि स्थति में नहीं थी और पास ही बेंच पर बैठ गयी एक निगाह भानु की ओर दौड़ायी।
वह भी अपनी गर्दन झुकाये खड़ा था। उस बच्चे की आँखों से आँसू रोके नहीं रुक रहे थे। वह कोशिश कर रहा था कि उसके आँसू मुझे न दिखाई दें। मेरे सामने धूमिल हो रही उसकी छवि अब उसकी समझ से परे थी। वह बार-बार अपना चेहरा छिपा रहा था और मैं वहाँ से जाना चाहती थी परन्तु मिस शुक्ला की बातों में इस क़दर उलझ गयी कि मेरा वहाँ से जाना मिस शुक्ला को अपमानजनक लगता।
मिस शुक्ला की भानु को लेकर शिकायत वाज़िब थी परन्तु गणित आज एक ऐसा विषय बन गया है जिससे सामान्य बुद्धि के बच्चे बचना चाहते हैं। वे क्या समझे हैं और क्या नही। एक बालमन इस अंतरबोध से परे अपना दृष्टिकोण सजाता है और धीरे-धीरे उसका आँकलन अपनी समझ से करना चाहता है जहाँ उसे उलझन महसूस होती है वह इससे दूर भागना चाहता है। यह समझ का वह पड़ाव है जहाँ ऐसी स्थित में उलझे बच्चे को एक सच्चे साथी की आवश्यकता महसूस होती है। यही वह परिस्थिति है जहाँ बच्चा आत्मसम्मान के बीज हृदय में अँकुरित करता है और अपने लिये एक रास्ता चुनता है।
तभी भानु के माता-पिता वहाँ पहुँचे |
भानु के मम्मी-पापा का ग़ुस्से में तमतमाया हुआ था चेहरा। वे इस बात को बहुत अपमानजनक मानते थे कि उनके बेटे की शिकायत उन्हें यहाँ तक खींच लायी है और उन्हें इस अपमान का सामना करना पड़ा।
मिस शुक्ला - ( भानु के माता-पिता को बैठने का इशारा करती हुई ) "देखिये! आजकल भानु की शरारतें बहुत बढ़ गयी हैं। आपको भी इस ओर ध्यान देने की बड़ी आवश्यकता है।"
भानु की मम्मी- "सुनता कहाँ है आज कल किसी की!"
( भानु की तरफ़ ग़ुस्से से देखती हुई )
भानु के पापा- आज शाम मैं इसकी ख़बर लेता हूँ, टी.वी., खेलना-कूदना सब बंद!
(और उन्होंने एक लम्बी साँस ली )
मिस शुक्ला - ( अपना मुँह बनाती हुई ) "वह तो ठीक है परन्तु बच्चे का इस तरह लापरवाह होना ठीक नहीं। उसे अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास होना चाहिए।"
और उन्होंने भानु को अपनी ओर आने का इशारा किया।
भानु अपना गुनाह स्वीकारते हुए गर्दन झुकाये खड़ा था, मैं बड़े ही ध्यानपूर्वक मौन अवस्था में यह वाकया घटित होते देख रही थी। कुछ अपना भी पक्ष रखना चाहती थी परन्तु समय ठीक नहीं लगा और मेरे विचार इस वार्तालाप के विपरीत थे इसीलिये मैंने अपने आपको ख़ामोशी में समेट लिया। मुझे पता था वही ख़ामोशी बार-बार मुझसे कह रही थी कि मैं ख़ामोश क्यों हूँ? मेरी ख़ामोशी ने उस बच्चे को एक ऐसी राह दिखायी जो शायद मेरी समझ से परे थी।
भानु की मम्मी - ( उसका हाथ अपनी ओर खींचती हुई, उसे आँखें दिखाते हुए दोनों होंठ इस तरह बनाये जैसे इस बच्चे ने बहुत बड़ा गुनाह किया हो, मुसीबत का पिटारा तो अब खुलने वाला था। कक्षा परख (क्लास टेस्ट ) में इस बार उसे काफ़ी कम नंबर मिले।
"यही दिन देखने के लिये हमने इतने अच्छे विद्यालय में दाख़िला करवाया तेरा .....!!!!
आँखों ही आँखों में भानु को सब कुछ समझा दिया |
तभी मिस शीला वहाँ पहुँची- "ओह! आप भानु के पेरेंट्स! मैं भी आपसे मिलना चाहती थी।
बहुत शरारती बच्चा है आपका, पढ़ाई में एक दम ज़ीरो।
शरारत करने में अव्वल है।
आप भी इस पर कुछ ध्यान दें।
फिर पेरेंट्स की शिकायत आती है कि नंबर कम मिले।"
(अपनी बात समाप्त करती हुई उसने एक नज़र भानु पर डाली और वहाँ से निकल गयी )
भानु बार-बार मेरी ओर देखता और गर्दन झुका लेता।
उस बच्चे की मुझसे उम्मीद थी कि मैं कहूँ कि वह मेरे विषय में अच्छा है और गृहकार्य भी पूर्ण रहता है परन्तु न जाने क्यों मैं कह नहीं पायी और वहाँ से बाहर निकल गयी। इस घटना के कुछ दिन बाद तक भानु विद्यालय नहीं आया और कुछ दिनों तक मेरा अवकाश रहा। उस दिन के बाद हमारी दूरी इतनी बढ़ गयी कि वह बच्चा मेरे सामने आने से भी कतराने लगा। क्या वजह थी कि एक पल में वह इतना बदल गया। कभी-कभार आँखों ही आँखों में उससे बातें होती थी। कुछ सवाल थे उस बच्चे की आँखों में जो आज भी मुझसे कह रहे हैं कि उस वक़्त मैं ख़ामोश क्यों थी ? क्यों नहीं कहा कि वह बहुत अच्छा बच्चा है ?
कभी-कभार ख़ामोशी ढ़ेर सारे सवाल छोड़ जाती है और यही प्रश्न करती है कि ख़ामोशी ख़ामोश क्यों थी ?
कभी कभार ख़ामोशी ढेरों सारे सवाल छोड़ जाती है, मन में...!!!एक ओर खामोशी से उपजी बाल मन की पीड़ा और दूसरी ओर उस खामोशी के पश्चाताप का दंश, सजीव मनोवैज्ञानिक चित्रण!
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-06-2019) को "योग-साधना का करो, दिन-प्रतिदिन अभ्यास" (चर्चा अंक- 3373) पर भी होगी। -- चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है। जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। -- अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्रिय अनीता , एक शिक्षक का बाल मन को सटीक पढ़ना इस लेख की सार्थकता है | काश सबसे पहले महत्वाकांक्षी माता पिता अपनी अपेक्षाओं का बोझ उनके नन्हे कन्धों और कोमल मन से कम कर दें तो ये बालकों पर बहुत बड़ा उपकार हो |भाव्पुरण लेखन के लिए सस्नेह शुभकामनायें और प्यार |
हृदय को उद्वेलित करती संवेदनशील कथा। कभी लगता है बाहरी घटनाओं से अपने आपको डिफेंस करने के चक्कर में हम अपनी कोमल संवेदनाओं से दूर होते जा रहें हैं । बहुत गहरा संदेश देती लघु कहानी।
अनिता दी,बालमन को समझना हर किसी के बस की बात नहीं। क्योंकि उसके लिए खुद को संवेदनशील होना पड़ता हैं। आज किसी के पास समय ही कहाँ हैं ऐसी छोटी छोटी बातों के लिए? कभी कभी सब कुछ समझ कर भी इंसान कुछ बोल नहीं पाता हैं। सुंदर प्रस्तूति।
बहुत उन्दा सवाल था -कभी कभी हमारी ख़ामोशी अनेक सवाल छोड़ जाती हैं , ,बेहतरीन कहानी ,आपकी कहानी से " तारे जमीं पर " फिल्म का छोटा बच्चा "ईशान "याद आ गया। काश ,उस वक़्त उस बच्चे की मनोदशा समझ कोई एक तो उसके साथ खड़ा होता ,काश उसे भी कोई "रामशंकर निकुम" मिल गया होता।
कभी कभार ख़ामोशी ढेरों सारे सवाल छोड़ जाती है, मन में ... बिल्कुल सही।
ReplyDeleteखामोशी को लेकर सुन्दर कथा।
ReplyDeleteकभी कभार ख़ामोशी ढेरों सारे सवाल छोड़ जाती है, मन में ..... वाह! बहुत सही.
ReplyDeleteबहुत उम्दा
ReplyDeleteसहृदय आभार आदरणीय
Deleteप्रणाम
सादर
कभी कभार ख़ामोशी ढेरों सारे सवाल छोड़ जाती है, मन में...!!!एक ओर खामोशी से उपजी बाल मन की पीड़ा और दूसरी ओर उस खामोशी के पश्चाताप का दंश, सजीव मनोवैज्ञानिक चित्रण!
ReplyDeleteसहृदय आभार आदरणीय
Deleteप्रणाम
सादर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (21-06-2019) को "योग-साधना का करो, दिन-प्रतिदिन अभ्यास" (चर्चा अंक- 3373) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए
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सादर
प्रिय अनीता , एक शिक्षक का बाल मन को सटीक पढ़ना इस लेख की सार्थकता है | काश सबसे पहले महत्वाकांक्षी माता पिता अपनी अपेक्षाओं का बोझ उनके नन्हे कन्धों और कोमल मन से कम कर दें तो ये बालकों पर बहुत बड़ा उपकार हो |भाव्पुरण लेखन के लिए सस्नेह शुभकामनायें और प्यार |
ReplyDeleteतहे दिल से आभार प्रिय रेणु दी जी |आप का स्नेह और सानिध्य यूँ ही बना रहे |
Deleteसादर स्नेह
बाल-मनोविज्ञान का एक सामान्य-सा पहलू इस लघुकथा में असरदार ढंग से उभारा गया है.
ReplyDeleteसमाज,शिक्षक और विद्यार्थियों को एक संदेश देती सुन्दर प्रस्तुति.
सहृदय आभार आदरणीय उत्साहवर्धन टिप्णी हेतु
Deleteप्रणाम
सादर
बाल मनोविज्ञान पर बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteतहे दिल से आभार दी जी
Deleteसादर
हृदय को उद्वेलित करती संवेदनशील कथा।
ReplyDeleteकभी लगता है बाहरी घटनाओं से अपने आपको डिफेंस करने के चक्कर में हम अपनी कोमल संवेदनाओं से दूर होते जा रहें हैं ।
बहुत गहरा संदेश देती लघु कहानी।
सस्नेह आभार प्रिय कुसुम दी जी
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सादर
अनिता दी,बालमन को समझना हर किसी के बस की बात नहीं। क्योंकि उसके लिए खुद को संवेदनशील होना पड़ता हैं। आज किसी के पास समय ही कहाँ हैं ऐसी छोटी छोटी बातों के लिए? कभी कभी सब कुछ समझ कर भी इंसान कुछ बोल नहीं पाता हैं। सुंदर प्रस्तूति।
ReplyDeleteतहे दिल से आभार प्रिय ज्योति बहन
Deleteसादर स्नेह
प्रणाम
सुन्दर एवं सटीक लेखन
ReplyDeleteसहृदय आभार आदरणीय
Deleteप्रणाम
सादर
बहुत उन्दा सवाल था -कभी कभी हमारी ख़ामोशी अनेक सवाल छोड़ जाती हैं , ,बेहतरीन कहानी ,आपकी कहानी से " तारे जमीं पर " फिल्म का छोटा बच्चा "ईशान "याद आ गया। काश ,उस वक़्त उस बच्चे की मनोदशा समझ कोई एक तो उसके साथ खड़ा होता ,काश उसे भी कोई "रामशंकर निकुम" मिल गया होता।
ReplyDeleteसस्नेह आभार सखी |सही कहा आप ने दी जी हक़ीक़त और कहानी में यही फ़र्क़ हो तो... आप ने कहानी की आत्मा को समझा तहे दिल से आभार आप का
Deleteसादर स्नेह
Waah! kya rachna likhi - Ration Card Suchi
ReplyDeleteThanks sir
Deleteबहुत ही शानदार एवं सटीक लेखन
ReplyDeleteसहृदय आभार आदरणीय
Deleteसादर
बाल मनोविज्ञान पर बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
Deleteसादर
jo dil bahut gehare bhaawon ko mehsus krte hain..har baat me gehrayi dhundh lete hain..aise dilon ke sath...baht smasyaa rehti he,,,,hmmmm
ReplyDeleteaapki uljhan dil tak pahunchii.....bahut hi sunder lekhan....
bdhaayi swikaar kren..itnaaa achha lekhan prstut krne ke liye
सस्नेह आभार प्रिय ज़ोया जी
Deleteसादर
Wow such great and effective guide
ReplyDeleteThanks for sharing such valuable information with us.
BhojpuriSong.IN
Thanks sir
Deleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteसस्नेह आभार बहना
Deleteसादर
लिखती रहो अनीता अच्छा लिख रही हो |
ReplyDeleteji
ReplyDeleteKheti Kare